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Updated on: 13 December, 2022 5:11 PM IST

चावल और गेहूं जैसे अनाज की कटाई के बाद बची हुई पुआल की पराली में जानबूझकर आग लगाने की प्रकिया को ‘‘स्टबल बर्निंग‘‘ कहते हैं.

क्यों जलाई जाती है पराली?

पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धान की लगभग 80 प्रतिशत कटाई कंबाइन हार्वेस्टर से करते हैं, कंबाइन ऐसी मशीनें होती हैं जो फसल को काटती हैं, थ्रेश करती हैं और थ्रेश किए गए अनाज को एक ही बार में साफ करती हैं. किन्तु यह मशीन फसल को जमीन के काफी करीब से नहीं काटती है, जिससे मशीन के पीछे लगभग 15 से 30 सेंटीमीटर ऊंची पराली रह जाती है जो किसानों के लिए किसी काम की नहीं होती है और उसे सड़ कर खत्म होने में लगभग एक से डेढ़ महीने का समय लगता है. 

कंबाइन हार्वेस्टर

लेकिन किसानों के पास इतना समय नहीं होता है कि वे इसका सड़ने का इंतजार करें. क्योंकि उन्हें अगली फसल की बुवाई के लिए खेत की तैयारी करनी होती है. इसलिए कटाई के बाद फसल के बचे हुए अवशेषों को जला दिया जाता है, जिससे वायुमंडल में धुंआ एकत्रित होता है और वायुमंडलीय प्रदूषण का कारण बनता है. जो औद्योगिक और वाहनों से होने वाले उत्सर्जन के बाद तीसरे स्थान पर आता है. यह प्रक्रिया अक्टूबर के आसपास शुरू होती है और नवंबर में अपने चरम पर होती है. सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि पंजाब और हरियाणा में सालाना लगभग 27 मिलियन टन धान की पुआल पैदा होती है, जिसमें से लगभग 6.4 मिलियन टन का प्रबंधन नहीं किया जाता है.

पराली जलाते हुए किसान

पराली जलाने के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव

पराली जलाने के सकारात्मक प्रभाव

  • पराली को जलाना अन्य निष्कासन विधियों की तुलना में सबसे सस्ता और आसान तरीका है. यदि पराली को खेत में ही छोड़ देते हैं, तो दीमक जैसे कीटों की आगामी फसल पर आक्रमण करने की संभावना बढ़ जाती है.

पराली जलाने के नकारात्मक प्रभाव

  • पर्यावरण प्रदूषणः फसल अवशेषों को जलाने से लगभग 149-24 फीसद कार्बन डाइऑक्साइड 9 फीसद से अधिक कार्बन मोनोऑक्साइड 0-25 फीसद सल्फर ऑक्साइड 1-28 फीसद पार्टिकुलेट मैटर और 0-07 फीसद ब्लैक कार्बन आदि प्रदूषक उत्सर्जित होते हैं. ये पर्यावरण प्रदूषण के साथ-साथ दिल्ली में धुंध और हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने के लिये भी जिम्मेदार हैं.

  • मृदा में पोषक तत्वों की हानिः यह मृदा में नाइट्रोजन फॉस्फोरस और पोटैशियम जैसे आवश्यक पोषक तत्वों को नष्ट कर देता है. एक रिपोर्ट के अनुसार एक टन पराली जलाने से 5-5 किलोग्राम नाइट्रोजन 2-3 किलोग्राम फॉस्फोरस 2-5 किलोग्राम पोटेशियम और 1-2 किलोग्राम सल्फर आदि पोषक तत्त्वों की हानि होती है. धान की पराली को जलाने से उत्पन्न ऊष्मा से यह मृदा के तापमान को लगभग 33- 8 से 42 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा देता है और इस प्रकार लगभग 2-5 सेमी की गहराई तक उपजाऊ मृदा में उपस्थित महत्त्वपूर्ण और उपयोगी सूक्ष्मजीवों जैसे बैक्टीरिया कवक को विस्थापित कर देता है या उन्हें मार देता है.

  • अनुकूल’ कीटों को हानि पहुँचने और ‘शत्रु’ ’कीटों का प्रकोप बढ़ने के परिणामस्वरूप फसलों में बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है.

  • मानव स्वास्थ्य पर प्रभावः इससे उत्पन्न वायु प्रदूषण से त्वचा और आंखों में जलन से लेकर गंभीर स्नायु हृदय और श्वसन-संबंधी रोगों जैसे विभिन्न स्वास्थ्य प्रभाव देखे गए हैं. एक अध्ययन के अनुसार प्रदूषण के उच्च स्तर के संपर्क में लंबे समय तक आने के कारण दिल्ली निवासियों की जीवन प्रत्याशा में लगभग 6-4 वर्ष की कमी आई है. ‘इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक चेंज बेंगलुरु’ के अध्ययन में एक अनुमान के अनुसार फसल अपशिष्ट जलाने से होने वाली बीमारियों का इलाज कराने के लिये पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में लोग प्रतिवर्ष 7-6 करोड़ रुपए खर्च करते हैं.

  • भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभावः रिपोर्टों के अनुसार वायु प्रदूषण में वृद्धि के कारण दिल्ली में पर्यटकों की आवागमन में लगभग 25-30 प्रतिशत की कमी आई है. यह अनुमान लगाया गया है कि वायु प्रदूषण की आर्थिक लागत लगभग 2-9 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की है जो विश्व के सकल घरेलू उत्पाद का 3-3 प्रतिशत है. विश्व के 20 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से 14 भारतीय शहर हैं जिनमें से अधिकांश दिल्ली उत्तर प्रदेश और अन्य उत्तरी राज्यों में हैं.

प्रबंधन

  • पूसा बायो डीकंपोजर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा विकसित किया गया एक कवक-आधारित तरल पदार्थ है, जो कठोर ठूंठ को इस हद तक नरम कर सकता है कि इसे खाद के रूप में कार्य करने के लिए आसानी से खेत में मिट्टी के साथ मिलाया जा सकता है. कवक 30-32 डिग्री सेल्सियस पर अधिक सक्रिय रहता है जो कि धान की कटाई और गेहूं की बुवाई के समय प्रचलित तापमान है. यह कवक धान के भूसे में सेल्यूलोज लिग्निन और पेक्टिन को पचाने के लिए एंजाइम का उत्पादन करता है और फसल के अवशेषों को तेजी से जैविक खाद में परिवर्तित करता है. यह पराली जलाने से रोकने के लिए एक कुशल प्रभावी सस्ती साध्य और व्यावहारिक तकनीक है.

पूसा बायो डीकंपोजर एवं उसका छिड़काव करता हुआ किसान
  • बायो एंजाइम-पूसा भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने विकसित किया है. जो पराली के सड़न को तेज करता है. इस एंजाइम के छिड़काव से पराली 20 से 25 दिनों में खाद में परिवर्तित हो जाती है जिससे मिट्टी की गुणवत्ता में और सुधार होता है.

  • टर्बो हैप्पी सीडर ट्रैक्टर पर लगी एक मशीन है जो न केवल पराली को काटती उखाड़ती है बल्कि उसी मिट्टी में गेहूं के बीज को भी ड्रिल करती है जिसे अभी-अभी साफ किया गया है. और पुआल को एक साथ बोए गए बीजों के ऊपर फेंका जाता है ताकि गीली घास का आवरण बन सके.

  • पराली जलाने को कम करने के लिए भारत स्वीडिश तकनीक का परीक्षण कर रहा है. टॉरफेक्शन प्रौद्योगिकी जो चावल के ठूंठ को ‘बायो-कोयला‘ में बदलता है. जैव-कोयला या बायो-कोयला जिसे आमतौर पर सिंथेटिक कोयले के रूप में भी जाना जाता है. इस प्रक्रिया में पुआल घास के अवशेष और लकड़ी के बायोमास को 250 डिग्री सेल्सियस से 350 डिग्री सेल्सियस तक गर्म करते हैं. यह बायोमास के तत्वों को ‘कोयला जैसे‘ छर्रों में बदल देता है. इन छर्रों का उपयोग इस्पात और सीमेंट उत्पादन जैसे औद्योगिक अनुप्रयोगों के लिए कोयले के साथ दहन के लिए किया जाता है.

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आगे का रास्ता क्या होना चाहिए

  • सरकार अपने पराली का पुनः उपयोग और पुनर्चक्रण करने वाले किसानों को प्रोत्साहन प्रदान कर सकती है.

  • गेहूं और धान की पराली को मवेशियों के लिए चारे के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है यह मवेशियों के लिए सबसे अच्छा सूखा चारा माना जाता है

  • केवल किसानों पर प्रतिबंध लगाने और उन्हें दंडित करने से पराली जलाने की रोकथाम की गारंटी नहीं है. भविष्य में ऐसा होने से रोकने के लिए एक स्थायी और प्रभावी समाधान की आवश्यकता है.

  • पराली को जलाने के बजाय इसका पशु चारा कंपोस्ट खाद ग्रामीण क्षेत्रों में छत निर्माण बायोमास ऊर्जा उत्पादन मशरूम की खेती पैकिंग सामग्री ईंधन कागज निर्माण जैव-एथेनॉल एवं औद्योगिक उत्पादन आदि विभिन्न उद्देश्यों से इस्तेमाल किया जा सकता है.

लेखक:

1. शिवम कुमार (पी0एच0डी0 शोध छात्र)
पादप रोगविज्ञान विभाग, पारिवारिक संसाधन प्रबन्ध एवं उपभोक्ता विज्ञान विभाग
चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कानपुर (उत्तर प्रदेश)

2. पल्लवी सिंह (पी0एच0डी शोध छात्रा)
आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय , कुमारगंज अयोध्या (उत्तर प्रदेश)

English Summary: Farmers should better manage the problems of stubble burning
Published on: 13 December 2022, 05:29 PM IST

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