जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा की कमी हो उन क्षेत्रों में कुसुम की खेती करना अधिक लाभदायक होता है. उत्पादन के लिये कुसुम फसल के लिये मध्यम काली भूमि से लेकर भारी काली भूमि उपयुक्त मानी जाती है. इसलिए कुसुम की उत्पादन क्षमता का सही लाभ लेने के लिये इसे गहरी काली जमीन में ही बोना चाहिए. इस फसल की जड़ें जमीन में गहरी जाती है. इसकी मुख्यतः खेती बुन्देलखण्ड (उत्तरप्रदेश) में की जाती है. पूर्वी मैदानी क्षेत्र के किसान अन्य तिलहनी फसलों की अपेक्षा कुसुम की खेती कम करते है. अगर किसान उन्नत तरीका अपनाकर इसकी खेती करें तो उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि होती है. ऐसे में आइए आज हम आपको उन्नत तरीके से कुसुम की खेती करने के बारे में बताते हैं-
खेत की तैयारी
खेत की अच्छी तैयारी करके इसकी बुआई करें। अच्छे जमाव के लिये बुआई पर्याप्त नमी वाले खेतों में ही करें.
उन्नतिशील प्रजातियां
के. 65 : यह 180 से 190 दिन में पकती है. इसमें तेल की मात्रा 30 से 35 प्रतिशत होती है और इसकी औसत उपज 14 से 15 कुन्तल प्रति हेक्टेयर होती है.
मालवीय कुसुम 305 :यह 160 दिन में पकती है. इसमें तेल की मात्रा 36 प्रतिशत होती है.
जे.एस.एफ - 1 : यह जाति सफेद रंग के फूल वाली है. इसके पौधे कांटेदार होते हैं. इसका दाना बड़ा एवं सफेद रंग का होता है. इस जाति के दानों में 30 प्रतिशत तेल होता है.
जे.एस.आई. -7 : इस जाति की विशेषता यह है कि यह कांटे रहित होता हैं. इसके खिले हुये फूल पीले रंग के होते है. जब सूखने लगते हैं फूल तो उनका रंग नारंगी लाल हो जाता है. इसका दाना छोटा सफेद रंग का होता है. दानों में 32 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है.
जे.एस.आई -73 : यह जाति भी बिना कांटे वाली है. इसके भी खिले हुये फूल पीले रंग के रहते हैं और सूखने पर फूलों का रंग नारंगी लाल हो जाता है. इसका दाना जे.एस.आई -7 जाति से थोड़ा बड़ा सफेद रंग का होता है. इसके दानों में तेल की मात्रा 31 प्रतिशत होती है.
बीज दर
18-20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें.
बुआई का समय एवं विधि
बुआई का उचित समय मध्य अक्टूबर से मध्य नवंबर है. इसकी बुआई 45 सेमी० कतार की दूरी पर कूंड़ों में करें बुआई के 15-20 दिन बाद अतिरिक्त पौधे निकालकर पौधे से पौधे की दूरी 20 से 25 सेमी० कर दें. बीज को 3 से 4 सेमी० की गहराई पर बोयें.
उर्वरकों की मात्रा
उर्वरकों का प्रयोग मिट्टी परीक्षण की संस्तुतियों के आधार पर करें अन्यथा नत्रजन 40 किग्रा० एवं 20 किग्रा० फास्फोरस का प्रयोग अधिक लाभकारी होता है. उर्वरकों का प्रयोग चोंगा/नाई द्वारा 3 से 4 सेमी० की गहराई पर करना चाहिए ताकि खाद का पूरा लाभ फसल को मिल सके.
निराई-गुड़ाई
बुआई के 20-25 दिन बाद निराई-गुड़ाई करें. अनावश्यक पौधों को निकालते हुए पौधों की दूरी 20-25 सेमी० कर दें.
सिंचाई
प्रायः इसकी खेती असिंचित क्षेत्रों में की जाती है यदि सिंचाई के साधन हैं तो एक सिंचाई फूले आते समय करें.
फसल सुरक्षा
खड़ी फसल में कभी-कभी गेरूई रोग तथा माहू कीट का प्रकोप हो जाता है, जिससे फसल को भारी नुकसान होती है, अतः आवश्यकतानुसार इनकी रोकथाम निम्नलिखित तरीके से करना चाहिए-
गेरूई रोग : इस रोग के वजह से पत्तियों पर पीले अथवा भूरे रंग के फफोले पड़ जाते है. इस रोग की रोकथाम के लिए मैंकोजेब 75 प्रतिशत डब्लू.पी. 2 किग्रा० अथवा जिनेब 75 प्रतिशत 2.5 किग्रा० को 800-1000 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से 10-14 दिन के अन्तर पर 3-4 बार छिड़काव करें.
माहू कीट : यह कीट काले रंग के होते हैं,जो, समूह में पुष्प/पत्तियों/कोमल शाखाओं पर चिपके रहते है तथा रस चूसकर क्षति पहुंचाते है. इस कीट की रोकथाम के लिए निम्नलिखित किसी एक रसायन का छिड़काव प्रति हेक्टेयर की दर से करे तथा आवश्यकता पड़ने पर 15-20 दिन के अन्तर पर पुनः छिड़काव करें। मैलाथियान 50 ई.सी. 2 लीटर प्रति हेक्टेयर अथवा मोनोक्रोटोफॉस एस.एल. 1.0 लीटर प्रति हेक्टेयर अथवा मिथाइल ओडेमेटान 25 प्रतिशत ई.सी. 1.0 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.
कुसुम की फल छेदक इल्ली : पौधों में जब फूल आना शुरु होते हैं तब इसका प्रकोप देखा जाता है. इसकी इल्लियाँ कलियों के अंदर रहकर फूल के प्रमुख भागों को नष्ट कर देती हैं. इसकी रोकथाम के लिये इंडोसल्फान 35 ई.सी. का 0.07 प्रतिशत या क्लोरपायरीफास 20 ई.सी. का 0.04 प्रतिशत या डेल्टामेथ्रिन का 0.01 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करें.
कटाई-मड़ाई
फसल पकने पर पत्तियां पीली पड़ जाती हैं तभी इसकी कटाई करनी चाहिए. सूखने के बाद मड़ाई करके दाना अलग कर देना चाहिए.