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Updated on: 10 June, 2019 11:43 AM IST

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान(आईसीएआर) में सब्जी विज्ञान विभाग के वैज्ञानिकों ने भिंडी की एक नई किस्म विकसित की है। जिसे इन्होंने पूसा भिंडी-5 नाम दिया है। पूसा भिंडी-5 को प्रधान वैज्ञानिक रमेश कुमार यादव जी ने अपने साथी वैज्ञानिक भोपाल सिंह तोमर और सुमन लता के साथ मिलकर तैयार किया है। यह भिंडी की पीली नाड़ीमोजैक विषाणु रोग प्रतिरोधी प्रजाति है. इसकी खरीफ (वर्षा ऋतु) में पैदावार लगभग 18 टन प्रति हेक्टेयर होती है. इसके फल आकर्षक गहरे हरे रंग एंव मध्यम लंबाई के होते है. इसके पौधे सीधे, लंबे एंव 2-3 शाखाओं के साथ होते है. इसका तना एंव पत्तियां हरे रंग की होती है. पत्तियों में मध्यम कटाव होता है. यह प्रजाति जायद एंव खरीफ दोनों मौसमों में सफलतापूर्वक खेती के लिए उपयुक्त है.

भिंडी, प्रमुख ग्रीष्मकालीन फसलों में से एक है. कच्ची भिंडियों को सब्जी के रुप में घरों में प्रयोग किया जाता है. इतना ही नहीं, भिंडी की जड़ो एवं तनों को गुड़ तथा शक्कर को साफ करने के लिए उपयोग में लाया जाता है. विश्व के कुछ देशों में भिंडी के बीजों का पाउडर बनाकर कॉफी के रुप में भी इस्तेमाल किया जाता है. रोजाना 2-3 भिंडियों को खाने से पेट साफ रहता है. भिंडियों में प्रोटीन, कैल्सियम व अन्य खनिज लवण भी उपलब्ध होते हैं. भिंडी आयोडीन का भी एक प्रमुख स्त्रोत है.

भारत विश्व का सबसे बड़ा भिंडी उत्पादक देश है. भारत में कुल सब्जी उत्पादन क्षेत्रफल में केवल 4.9 प्रतिशत भूभाग यानि 0.514 मिलियन हेक्टेयर भूमि का प्रयोग भिंडी के उत्पादन के लिए किया जाता है. जिससे कुल 6,126 मिलियन टन का उत्पादन प्राप्त होता है.

सामान्यतः भिंडी देश के सभी भागों मे उगाई जाती है पर पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान और असम प्रमुख भिंडी उत्पादक राज्य है. गौरतलब है कि दिल्ली एवं उसके सीमावर्ती राज्यों में भी भिंडी की खेती काफी प्रचलित हो रही हैं. इसके अलावा भिंडी निर्यात करके विदेशी मुद्रा कमाने में भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं. यदि भिंडी की खेती वैज्ञानिक ढंग से की जाए तो यह एक लाभदायक व्यवसाय साबित हो सकता हैं.

गौरतलब है कि वर्षाकाल में भिंडी की खेती में ‘पीली नाड़ीमोजेक’ वायरस एक प्रमुख समस्या हैं जिसके कारण किसानों को 40 से 90 प्रतिशत तक नुकसान झेलना पड़ता हैं. इस समस्या को ध्यान में रखते हुए, इस रोग की प्रतिरोधी भिंडी की एक नई किस्म पूसा भिंडी-5 ईज़ाद की गई है। जिस पर इस रोग का कोई फर्क नहीं पड़ेगा. भिंडी की यह किस्म नई दिल्ली स्थित ‘भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान’ द्वारा साल 2017 में विकसित की गई थी.  

पूसा भिंडी-5 की प्रमुख विषेशताएँ :

1. यह भिंडी की पीली नाड़ीमोजेक विषाणु रोग प्रतिरोधी प्रजाति है.

2. खरीफ मौसम (वर्षा ऋतु) में इसकी पैदावार लगभग 18 टन प्रति हेक्टेयर तथा जायद मौसम (बसंत ऋतु) में पैदावार 12 टन प्रति हेक्टेयर होती है.

3. इसके फल आकर्षक गहरे हरे रंग के पांच धारियों वाले एंव मध्यम लंबाई(10-12 सेमी) के होते है.

4. पौधे सीधे, लंबे एंव 2-3 शाखाओं के साथ होते है.

5. इसका तना एंव पत्तियां हरे रंग की होती है.

6. पत्तियों में मध्यम कटाव होता है.

7. यह प्रजाति जायद (15 फरवरी से 15 मार्च बुवाई ) एंव खरीफ (15 जून से 15 जुलाई बुवाई) दोनो ही मौसम में सफलतापूर्वक खेती के लिए उपयुक्त है.

पूसा भिंडी- 5 की खेती की पद्धति :

जलवायुः भिंडी गर्म मौसम की सब्जी है. इसके लिए लंबे समय तक अनुकूल मौसम की आवश्यकता पड़ती है. बहुत कम तापमान (18 डिग्री सेल्सियस से कम) पर इनके बीजों का अंकुरण अच्छा नही हो पाता.

भूमिः इसको विभिन्न प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है पर जीवांश युक्त उचित जल निकास वाली दोमट व बलुई दोमट मिट्टी जिसका पीएच मान (अम्लता) 6.0-6.8 हो, ऐसी मिट्टी अधिक पैदावार के लिए उपयुक्त रहती है.

खेत की तैयारीः भिंडी की खेती के लिए भुरभुरी मिट्टी की आवश्यकता पड़ती है. इसलिए खेती करने से पहले जुताई करके मिट्टी भुरभुरी बना लें.

बीज बोने का समयः मैदानी क्षेत्रों में ग्रीष्मकालीन बीज फरवरी से मार्च तक तथा वर्षाकालीन बीज जून से जुलाई तक बोई जाती है. जबकि पहाड़ी क्षेत्रों में इसकी बुवाई अप्रैल से जुलाई तक की जा सकती है.

बीज की मात्राः इसके बीजों की मात्रा, बोने के समय व दूरी पर निर्भर करती है. खरीफ की खेती के लिए 8-10 किलोग्राम बीज तथा ग्रीष्मकालीन फसल के लिए 12-15 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर आवश्यकता होती है. अच्छी उपज के लिए शुद्ध एवं प्रमाणित बीज का उपयोग करना चाहिए.

बुवाई  की दूरीः ग्रीष्मकालीन फसल के लिए एक पौधे से दूसरे पौधे की दूरी 45 सें.मी. एवं एक कतार से दूसरी कतार की दूरी 30 सें.मी. बनाए रखनी चाहिए.

वहीं वर्षाकालीन फसल के लिए एक पौधे से दूसरे पौधे की दूरी 60 सें.मी. एवं एक कतार से दूसरी कतार की दूरी  30 सें.मी. की बनाए रखनी चाहिए.

खाद एवं उर्वरकः भिंडी की अच्छी पैदावार के लिए आवश्यक है कि गोबर की खाद के साथ-साथ उर्वरकों का भी संतुलित मात्रा में उपयोग करें. इसके लिए यह आवश्यक है कि पहले से ही मिट्टी की उर्वरता की जांच करा लें. वैसे साधारण भूमि में 20-25 टन सड़ी गोबर की खाद, 100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस और 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टयर की दर से उपयोग करना चाहिए.

खेत की तैयारी के समय गोबर की खाद को अच्छी तरह से मिट्टी में मिला लें. नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई से पूर्व खेत में मिला लेनी चाहिए. नाइट्रोजन की शेष मात्रा बुवाई के 30 और 50 दिन के बाद दो बराबर भागों में फसल में टाप ड्रेसिंग के रुप में दें. उर्वरक देने के बाद मिट्टी की गुड़ाई करें और पौधे की जड़ों पर मिट्टी चढ़ाकर हल्की सिंचाई करें ताकि पौधे उर्वरक आसानी से ले सके और पौधों को किसी भी प्रकार की क्षति न पहुंचे.

बुवाई  की विधिः भिंडी की बुवाई समतल क्यारियों एवं मेंड़ों पर दोनों ही विधियों से करते है. जहां मिट्टी भारी तथा जल निकास का अभाव हो, वहां बुवाई मेंड़ों पर की जाती है. अगेती फसल लेने के लिए बीज को 24 घंटों तक पानी में भिगोकर, छाया में सुखाने के बाद बुवाई करनी चाहिए. बुवाई के पूर्व थिरम नामक कवकनाशी की 2.5 ग्राम दवा 1 किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें. बुवाई से पहले भिंडी की कतारों में फ्यूराडान नामक दवा 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालने पर कीड़ों का प्रकोप कम होता है.

 

सिंचाईः बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिए एवं पहली सिचाई अंकुरण आने के बाद ही करें. लगभग एक सप्ताह बाद मौसम के अनुरूप फसल में आवश्यकतानुसार सिंचाई करे . सामान्यतः सिंचाई मार्च में 10-12 दिन, अप्रैल में 7-8 दिन और मई-जून में 4-5 दिन के अंतराल पर करें. वर्षा ऋतु मे भिंडी की फसल में ज्यादा पानी अधिक देर तक नहीं ठहरने दे. यदि पानी अधिक समय तक खड़ा रहा तो फसल पीली पड़कर खराब हो जाती हैं. अतः ज्यादा पानी के निकास की उचित व्यवस्था करनी चाहिए.

खरपतवार नियंत्रणः भिंडी की फसल के साथ अनेक खरपतवार उग जाते है जो पौधे की विकास एवं बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव डालते है. परीक्षणों से पता चलता है कि यदि भिंडी की फसल को उसके जीवनकाल के 35-40 दिनों तक खरपतवार रहित रखा जाए तो वे फसल पर कुप्रभाव नहीं डालते.
पौधों की प्रारंभिक अवस्था में 2-3 बार निराई-गुड़ाई करते रहनी चाहिए. व्यापारिक स्तर पर रोकथाम के लिए वासालिन की 1.5 किलोग्राम मात्रा प्रति 1000 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के 3-4 दिन पहले जमीन पर छिड़काव करने से खरपतवार नष्ट हो जाती हैं.

इसी प्रकार स्टाम्प की भी 3.3 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने पर खरपतवार नष्ट हो जाते है तथा पैदावार काफी अच्छी प्राप्त होती है. स्टाम्प का प्रयोग बुवाई के तुरंत बाद जब भूमि में पर्याप्त नमी हो करना चाहिए.

फसल सुरक्षा

प्रमुख रोगः

1. पीली नाड़ी मोजैक रोग : इस प्रजाति में यह रोग सामान्यत: नहीं आता हैं. लेकिन फसल की अंतिम अवस्था में यदि इस रोग से ग्रसित पौधे दिखाई दें तो उन्हें उखाड़ कर मिटटी में दबा दें .

2. चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्डयू): प्रभावित पौधो की पत्तियों पर सफेद पाउडर जैसी परत आ जाती है जो बाद में पीली पड़कर झड़ जाती है. घुलनशील सल्फर के 2 प्रतिशत का छिड़काव करने से इस रोग की रोकथाम हो जाती है.

प्रमुख कीटः

1. कीटों का प्रकोप दिखाई देने पर जैविक या रासायनिक दवाओं का इस्तेमाल करें.

2. जहां तक संभव हो जैविक विकल्पों पर बल दें.

3. रसायन डालने के बाद लगभग 5 से 7 दिन के बाद ही फलों की तुड़ाई करें, जिससे उत्पाद में रसायन का अवशेष न रह जाए.

फुदका या तेला ( जैसिड): ये हरे रंग के छोटे कीट होते है और पत्तियों की निचली सतह पर पाए जाते है. शिशु व प्रौढ़ दोनों भिंडी की पत्तियों से रस चूसते हैं. प्रभावित पत्तियां पीली पड़कर उपर की तरफ मुड़ जाती है और सिकुड़ जाती हैं।

इससे बचाव के लिए एसिटामीपरिड 1.0 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें तथा 10-12 दिनों के अंतराल पर दोबारा छिड़काव करें. बुवाई के समय कार्बोफ़्यूरान, 3 जी 1.0 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में मिला दें.

तना एवं फल छेदकः यह कीट नव विकसित शाखाओं व फूलों पर अन्डे देता है. इसका लार्वा फल एवं शाखओं में प्रवेश करके नुकसान पहुंचाना प्रारंभ कर देते हैं. जिसके कारण प्रभावित फल खाने योग्य नहीं रह जाते हैं और टेढ़े हो जाते हैं. प्रभावित फलों एवं शाखाओं को प्रतिदिन कीट सहित तोड़कर मिट्टी में दबा देना चाहिए.

बीस फेरोमोन ट्रैप को प्रति हेक्टेयर के हिसाब से पूरे खेत में लगाने से कीटों का प्रजनन कम हो जाता है तथा हर महीने के बाद ट्रैप में फेरोमोन दवा को बदलते रहते हैं.

फूल आते समय नीम अर्क का 5 प्रतिशत घोल बनाकर छिडकाव करना चाहिए. कीटो का आक्रमण दिखाई देने पर, रोकथाम के लिए मैलाथियान 50 ई.सी. 1.5 मि.ली. प्रति लीटर तथा इसके बाद 10 दिन के अंतराल पर स्पिनोसेड दवा की 1.0 मि.ली. मात्रा को प्रति चार लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए तथा 10-12 दिनों पश्चात इसी छिड़काव को दोहरा दें.

लाल मकड़ी:  यह बहुत छोटे कीट हैं जो पत्तियों की निचली सतह पर जाला बनाकर उसके अंदर रहते हैं. इनका प्रकोप ग्रीष्म ऋतु में अधिक होता है. इसकी रोकथाम के लिए डाइकोफाल नामक दवा की 2.5 मिली. मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें. यदि प्रकोप कम ना हो तो स्पाइरोमेसिफेन 1 मिली. प्रति 3 लीटर पानी का घोल बनाकर छिडकाव करें.

फलों की तुड़ाईः भिंडी के 6-7 दिन के फलों को नरम अवस्था में तुड़ाई करे. बहुत छोटे फलों (4-5 दिनों से पहले के फलों) को तोड़ने से उपज कम प्राप्त होती हैं तथा 8-10 दिनों से ज्यादा के फलों में रेसे की मात्रा बढ़ जाती हैं और उनकी गुणवत्ता खराब हो जाती हैं. समय पर तुड़ाई करने से नए फूल एवं फल ज्यादा आते हैं.

फलों का अच्छी तरह वर्गीकरण एवं पैकिंग करके बिक्री करने से मुनाफा ज्यादा मिलता हैं.

उत्पादनः उचित देखरेख व उपयुक्त प्रकार से खेती करने से इस प्रजाति में प्रति हेक्टेयर 18 टन हरी फलियां प्राप्त होती है. 


रमेश कुमार यादव,
भोपाल सिंह तोंमर एवं सुमन लता

सब्जी विज्ञान संभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली-110012

English Summary: Cultivation ofPusa 'Bhindi-5 Grow new varieties Pusa 'Bhindi-5' and earn profit
Published on: 10 June 2019, 11:57 AM IST

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