अधिक बाजरे का उत्पादन और लाभ हेतु उन्नत प्रौद्योगिकियां अपना आवश्यक है. भारत दुनिया का अग्रणी बाजरा उत्पादक देश है. यहां में लगभग 85 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बाजरे की खेती की जाती है. जिसमें से 87 प्रतिशत क्षेत्र राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा राज्यों में है. देश के शुष्क तथा अर्धशुष्क क्षेत्रों में यह प्रमुख खाद्य है और साथ ही पशुओं के पौष्टिक चारा उत्पादन के लिए भी बाजरे की खेती की जाती है. पोषण की दृष्टि से जहां इसके दाने में अपेक्षाकृत अधिक प्रोटीन; 10.5 से 14.5 प्रतिशत और वसा ;4 से 8 प्रतिशत मिलती है, वहीं कार्बोहाइड्रेट खनिज/Carbohydrate Minerals तत्व कैल्शियम केरोटिन राइबोफ्लेविन ;विटामिन बी.2 और नायसिन ;विटामिन बी.6 भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं. गेहूं एवं चावल की अपेक्षा बाजरे में लौह तत्व भी अधिक होता है. अधिक ऊर्जा होने के कारण बाजरे को सर्दियों के मौसम में खाने में अधिक प्रयोग किया जाता है. बाजरा के चारे में प्रोटीन, कैल्शियम, फॉस्फोरस और खनिज लवण उपयुक्त मात्रा में एवं हाइड्रोरासायनिक अम्ल सुरक्षित मात्रा में पाया जाता है.
भारत के कुल बाजरा क्षेत्र का लगभग 95 प्रतिशत असिंचित है जिससे मानसून की अनिश्चितता की तरह बाजरा की उत्पादकता में भी उतार-चढ़ाव रहता है. इसके अतिरिक्त कुछ रोगों और कीट रोगों का प्रकोप एवं वैज्ञानिक तरीके से फसल प्रबंधन नहीं होने से भी इस फसल की पैदावार अन्य खरीफ की अनाज वाली फसलों की तुलना में कम हो जाती है. परन्तु यदि सही किस्म का चुनाव और खेती के लिए उन्नत सस्य तथा पौध संरक्षण तकनीकियां अपनाई जाएं तो बाजरा की पैदावार में उल्लेखनीय वृद्धि की जा सकती है. इस लेख में बाजरे से जुड़ी खेती की हर जानकारी का उल्लेख है.
भूमि
बाजरे की फसल अच्छी जल निकास वाली सभी तरह की भूमियों में ली जा सकती है. परन्तु बलुई दोमट मिट्टी इसके लिए सर्वोत्तम है. बाजरे के लिए भारी भूमि कम अनुकूल रहती है और इसके लिए अधिक उपजाऊ भूमियों की आवश्यकता नहीं होती है.
जलवायु
बाजरे की खेती गर्म जलवायु और 400 से 600 मिलीमीटर वर्षा वाले क्षेत्रों में भली भांति की जा सकती है. 32 से 37 सेल्सियस तापमान बाजरे के लिए उपयुक्त माना गया है. यदि पुष्पन अवस्था में वर्षा हो जाए या फव्वारों से सिंचाई कर दी जाए तो फूल धुल जाने के कारण बाजरे में दानों का भराव कम हो जाता है. बालियों में दाना भरने की अवस्था में यदि नमी अधिक हो और तापमान कम हो तो अर्गट रोग के प्रकोप की संभावना बढ़ जाती है.
फसल पद्धतियां
बाजरे की फसल के साथ यदि दलहनी फसलों जैसे- मुंग ग्वार, अरहर मोठ और लोबिया को अन्तः फसल के रूप में बोया जाए तो न केवल बाजरे के उत्पादन में वृद्धि होती है, बल्कि दलहनों के कारण मिट्टी की उर्वरता में भी सुधार होता है और अतिरिक्त दाल उत्पादन से कृषकों की आय में भी वृद्धि होती है साथ ही दलहनवर्गीय फसलें जैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण करती है जिससे मिटटी में नाइट्रोजन बढ़ जाती है. फलस्वरूप उर्वरकों से नाइट्रोजन कम देनी पड़ती है, जिससे कृषि लागत में कमी आती है.
फसल चक्र
मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने के लिए फसल चक्र अपनाना महत्वपूर्ण है. बाजरे के लिए निम्न एकवर्षीय फसल चक्रों को अपनाना चाहिए जैसे बाजरा -
1.गेहूं या जौ
2. बाजरा - सरसों या तारामीरा
3. बाजरा - चनाए मटर या मसूर
4. बाजरा - गेहूं या सरसों - ग्वार, ज्वार या मक्का ;चारे के लिए.
5. बाजरा - सरसों - ग्रीष्मकालीन मूंग.
उन्नत किस्में
विभिन्न राज्यों के लिए बाजरे की उपयुक्त किस्में निम्न प्रकार से हैं, जैसे.
राजस्थान - आर.एच बी. 121, आर एच बी. 154, सी जेड पी. 9802, राज. 171, डब्लू.सी.सी. 75, पूसा. 443, आर एच बी. 58, आर.एच.बी. 30, आर एच बी. 90 आदि प्रमुख हैं.
महाराष्ट्र - संगम आर एच आर बी एच. 9808, प्रभणी संपदा, आई सी एम एच. 365, साबोरी, श्रद्धा, एम एच.179 आदि मुख्य हैं.
गुजरात - जी एच बी. 526, जी एच बी. 558, जी एच बी. 577, जी एच बी. 538, जी एच बी. 719, जी एच बी. 732, पूसा. 605 आदि.
उत्तर प्रदेश- पूसा. 443, पूसा. 383, एच एच बी. 216, एच एच बी. 223, एच एच बी. 67 इम्प्रूव्ड आदि प्रमुख हैं.
हरियाणा- एच सी. 10, एच सी. 20, पूसा. 443, पूसा. 383, एच एच बी. 223, एच एच बी. 216, एच एच बी. 197, एच एच बी. 67 इम्प्रूव्ड, एच एच बी. 146, एच एच बी. 117 आदि प्रमुख हैं.
कर्नाटक- पूसा. 334, आई सी एम एच. 356, एच एच बी. 67 इम्प्रूव्ड, नन्दी. 64, नन्दी. 65 आदि.
आंध्र प्रदेश- जी एच बी. 558, एच एच बी. 146, नन्दी. 65, नन्दी. 64, जी के. 1004, आई सी एम एच. 356, अनन्तास आई सी एम बी. 221 आदि.
तमिलनाडु - पी ए सी. 903, एम एल बी एच. 104, जी एच बी. 558, जी एच बी. 526, आई सी एम एच. 356, सी ओ एच. 8 आदि मुख्य है.
चारे के लिए बाजरे की किस्में. राज बाजरा चरी. 2, जाइन्ट बाजरा, ए वी के बी. 2, ए वी के बी. 19, जी एफ बी. 1, पी सी बी. 164, नरेन्द्र चरी बाजरा- 2 आदि.
खेत की तैयारी
गर्मियों में गहरी जुताई करें और उत्तम जल निकास के लिए खेत को समतल कर लें बाजरे की अच्छी फसल लेने के लिए एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए एवं इसके बाद दो-तीन बार जुताई करके बुवाई करनी चाहिए. दीमक तथा लट के प्रकोप वाले क्षेत्रों में 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से फोरेट अंतिम जुताई से पूर्व डालनी चाहिए. बाजरे की खेती शून्य जुताई विधि द्वारा भी सफलतापूर्वक की जा सकती है. इसके लिए खेत को समतल करना तथा मिट्टी पर पूर्व फसल के अवशेषों या अन्य वानस्पतिक अवशेषों का आवरण बनाए रखना लाभप्रद होता है.
फसल बुआई
बारानी क्षेत्रों में मानसून की पहली बारिश के साथ ही बाजरे की बुवाई कर देनी चाहिए. उत्तरी भारत में बाजरे की बुवाई के लिए जुलाई का प्रथम पखवाड़ा सर्वोत्तम है 25 जुलाई के बाद बुवाई करने से 40 से 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर प्रतिदिन पैदावार में नुकसान होता है. बुवाई के लिए 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है. बाजरे की फसल 45 से 50 सेंटीमीटर की दूरी पर कतारों में बोनी चाहिए. बुवाई के 10 से 15 दिन बाद यदि पौधे घने हों तो पौधों की छंटाई कर देनी चाहिए और पौधे से पौधे की दूरी 8 से 10 सेंटीमीटर रखनी चाहिए जिससे प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में 1.75 से 2 लाख पौधे प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो सकें. इस संख्या में पौधे उगाने से बाजरे की अधिकतम उपज ली जा सकती है.
फसल रोपाई
यदि मानसून देरी से आए या किन्हीं कारणों से समय पर बुवाई न कर सकें तो बाजरे की फसल को देरी से बोने की अपेक्षा इसकी रोपाई करना अधिक लाभप्रद पाया गया है. एक हेक्टेयर क्षेत्र में पौध रोपाई के लिए लगभग 500 वर्गमीटर क्षेत्र में 2 से 3 किलोग्राम बीज उपयोग करते हुए जुलाई माह के प्रथम सप्ताह में नर्सरी तैयार करनी चाहिए. पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए भली प्रकार से खेत की तैयारी करें और 12 से 15 किलोग्राम यूरिया डालें 2 से 3 सप्ताह बाद पौध की रोपाई मुख्य खेत में करनी चाहिए. जब पौधों को क्यारियों से उखाड़े तब जड़ों की क्षति कम करने के लिए ध्यान रखें कि नर्सरी में पर्याप्त नमी हो, जहां तक संभव हो रोपाई वर्षा वाले दिन करनी चाहिए. बाजरे की रोपाई करने के निम्नलिखित लाभ हैं, जैसे.
1. रोपाई विधि द्वारा बाजरा उगाने से जुलाई के तीसरे सप्ताह से अगस्त माह के प्रथम पखवाड़े तक भी रोपाई कर अच्छी पैदावार ली जा सकती है.
2. बाजरे की रोपाई वाली फसल शीघ्र पकती है एवं बाद में कम तापमान हो जाने से फसल पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता.
3. रोपाई वाली फसल अपेक्षाकृत भारी वर्षा का सामना अच्छी तरह से कर लेती है.
4. रोपाई के समय रोगग्रस्त कमजोर व बेमेल पौधों को पहचान कर अलग किया जा सकता है.
5. इस प्रकार सभी पौधे स्वस्थ रहेंगे तो बाजरा उत्पादन भी अधिक होगा और लाभ में वृद्धि होगी.
6. रोपाई विधि द्वारा बोई गई फसल में बढ़तवार अच्छी होती है और कल्ले व बालियों की संख्या भी अधिक होती है.
पोषक तत्व प्रबंधन
सिंचित क्षेत्र
मिट्टी परीक्षणों के आधार पर संस्तुत उर्वरकों का उपयोग करना अधिक लाभप्रद रहता है. परन्तु यदि मिट्टी जांच परिणाम उपलब्ध नहीं है तो सिंचित क्षेत्रों में बाजरे के लिए उर्वरकों की आवश्यकता इस प्रकार है, जैसे- नाइट्रोजन 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयरए फॉस्फोरस 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और पोटाश 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर.
बारानी क्षेत्र
बारानी क्षेत्रों के लिए निम्नानुसार उर्वरकों की आवश्यकता होती है. जैसे.नाइट्रोजन 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयरए फॉस्फोरस 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और पोटाश 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर सिंचित व असिंचित क्षेत्रों में जस्ते की कमी हो तो 5 किलोग्राम जस्ता प्रति हेक्टेयर की दर से दें. जैव उर्वरकों जैसे एजोस्पिरिलम व फास्फोरस घोलक जैव उर्वरक के द्वारा बीजोपचार करके बुवाई करना फसल के लिए अधिक लाभप्रद रहता है. सिंचित व असिंचित दोनों परिस्थितियों में नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस पोटाश एवं जस्ते की पूरी मात्रा लगभग 3 से 4 सेंटीमीटर गहराई पर मिट्टी में डालनी चाहिए नाइट्रोजन की शेष मात्रा बुवाई के 30 से 35 दिन बाद मिट्टी में उपयुक्त नमी होने की स्थिति में डालनी चाहिए.
जल प्रबंधन
यद्यपि बाजरा की फसल मुख्यतः बारानी क्षेत्रों में ली जाती है. परन्तु फूल आते समय व दाना बनते समय नमी की कमी होना अधिक हानिप्रद है, अतः यदि सिंचाई का स्रोत उपलब्ध हो तो इन क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई करना लाभप्रद होता है. बाजरा जल भराव से भी प्रभावित होता है इसलिए जल निकास का समुचित प्रबंध करें.
खरपतवार प्रबंधन
बाजरे की फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए 1 किलोग्राम एट्राजीन या पेंडिमिथालिन 500 से 600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. यह छिड़काव बुवाई के बाद और अंकुरण से पूर्व करते हैं. इसके साथ-साथ बाजरे की बुवाई के 20 से 30 दिन बाद एक बार खुरपी या कसौला से खरपतवार निकाल देना चाहिए.
कीट प्रबंधन
दीमक
इसके प्रकोप को रोकने के लिए 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से क्लोरोपाइरीफॉस का पौधों की जड़ों में छिड़काव करें या हल्की वर्षा के समय मिट्टी में मिलाकर बिखेर दें.
तना मक्खी
इसकी गिडारें और इल्लियां प्रारंभिक अवस्था में पौधों की बढ़वार को काट देती हैं जिससे पौधे सूख जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से फॉरेट या 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर फ्यूराडोन, 3 प्रतिशत, या 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मैलाथियान, 5 प्रतिशत खेत में डालना चाहिए.
सफेद लट.
यह लट पौधों की जड़ों को काटकर फसल की विभिन्न अवस्थाओं में बाजरे को नुकसान पहुंचाती है. इसकी रोकथाम के लिए फ्यूराडॉन 3 प्रतिशत या फॉरेट 10 प्रतिशत दानों को 12 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बाजरे की बुवाई के समय मिट्टी में डालना चाहिए.
रोग प्रबंधन
मृदु रोमिल आसिता.
यह रोग हरी बाली रोग या डाउनी मिल्ड्यू के नाम से भी जाना जाता है. यह फफूंदी जनक रोग है. यह रोग अंकुरण के समय व पौधों की बढ़वार के समय शुरू होता है. इससे प्रभावित पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और बढ़वार रूक जाती है. प्रातःकाल में पौधों की निचली पत्तियों पर सफेद चूर्णनुमा पदार्थ दिखाई देता है. रोग की उग्र अवस्था में प्रभावित पौधों पर बालियां नहीं बनती हैं. जब इस रोग का प्रकोप बाली बनने की अवस्था में होता है तो बालियों पर दानों के स्थान पर छोटी-छोटी हरी पत्तियां उग जाती हैं. रोगग्रस्त पौधों की सूखी पत्तियां खेत में गिरने से फसल अगले वर्ष भी इस बीमारी से ग्रस्त हो सकती हैं.
रोकथाम
1.इसकी रोकथाम के लिए सदैव प्रमाणित बीजों का ही प्रयोग करें.
2. बुवाई से पहले रिडोमिल एम जेड. 72 या थाइम से 3 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीजोपचार करके बुवाई करें.
3. खेत में रोगग्रस्त पौधे दिखाई देने पर पौधों को समय-समय पर उखाड़कर जला देना चाहिए.
4. उपयुक्त फसल चक्र अपनाकर भी मृदु रोमिल आसिता रोग की रोकथाम की जा सकती है.
5. खड़ी फसल में 0.2 प्रतिशत की दर से डाइथेन जेड. 78 या 0.35 प्रतिशत की दर से कॉपर ऑक्सीक्लोराइड का पर्णीय छिड़काव करके इस रोग की रोकथाम की जा सकती है, आवश्यकता होने पर 10 से 15 दिन बाद पुनः एक छिड़काव करना चाहिए.
अर्गट
यह रोग बाली बनते समय बाजरे को नुकसान पहुंचाता है. रोगग्रस्त पौधों में बालियों पर शहद जैसी चिपचिपी बूंदें दिखाई देती हैं. शहद के समान दिखाई देने वाला यह पदार्थ कुछ दिनों बाद सूखकर गाढ़ा पड़ जाता है. इस जहरीले पदार्थ को अर्गट के नाम से जाना जाता है. जो मानव और पशुओं के लिए हानिकारक होता है. बाजरे की संकर किस्मों में यह रोग अधिक फैलता है.
रोकथाम
1. फसल की बुवाई उचित समय पर करें अगेती बुवाई करने से फसल में फूल आते समय तापमान कम नहीं होता और आर्द्रता भी अधिक नहीं होती जिससे रोग का प्रकोप कम रहता है.
2. सदैव प्रमाणित बीज ही उपयोग में लें और उपयुक्त फसल चक्र अपनाएं.
3. खेत में रोगग्रस्त बालियों को काटकर जला देना चाहिए.
4. बीजों में मिले हुए रोगजनक स्क्लेरोसिया या अर्गट के पिण्डों को दूर करने के लिए बीजों को 10 प्रतिशत नमक के घोल में डालकर अलग कर देना चाहिए उसके बाद बीजों को धोकर साफ करें तथा सुखाकर बुवाई करें.
5. बीजों को 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बाविस्टीन द्वारा उपचारित करके बोएं.
6. खड़ी फसल में रोग की रोकथाम के लिए बाविस्टिन 0.1 प्रतिशत का 2 से 3 बार पर्णीय छिड़काव करें.
पैदावार
यदि उपरोक्त आधुनिक विधि से बाजरे की फसल ली जाए तो सिंचित अवस्था में इसकी उपज 3 से 4.5 टन दाना और 9 से 10 टन सूखा चारा प्रति हेक्टेयर और असिंचित अवस्था में 2 से 3 टन प्रति हेक्टेयर दाना एवं 6 से 7 टन सूखा चारा मिल जाता है.
भंडारण
बाजरे के दानों को अच्छी तरह धूप में सुखाएं और दानों में नमी की मात्रा 8 से 10 प्रतिशत होने पर उपयुक्त स्थान पर भंडारण करें.
लेखकः-
हरीश कुमार रछोयॉ एवं मुकेश शर्मा
वैज्ञानिक शस्य विज्ञान एवं पोद्य संरक्षण
कृषि विज्ञान केंन्द्र, सरदारशहर ,चूरू (राजस्थान)
Email: hrish.rachhoya@gmail.com
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