खीरे की खेती विश्व मे कई देशो में अत्यन्त प्राचीनकाल से की जा रही है. खीरे का जन्म स्थान भारत माना जाता है. यही से यह विश्व के अन्य देशो मे इसका प्रचार प्रसार हुआ है. 3000 वर्ष पूर्व से ही इसकी खेती की जा रही है . इसके पोधे शाकीय, दुर्बल तने वाले तथा रेंगकर बढने वाले होते है.
महत्व
खीरे के फल का उपयोग कच्चे, सलाद या सब्जियों के रूप में किया जाता है. खीरा को उपवास के समय भी फलाहार के रूप में प्रयोग किया जाता है. इसके द्वारा विभिन्न प्राकर की मिठाइयाँ व व्यजन भी तैयार किये जाते है. पेट के विभिन्न रोगो में भी खीरा को औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है. खीरा कब्ज़ दूर करता है.पीलिया, प्यास, ज्वर, शरीर की जलन, गर्मी के सारे दोष, चर्म रोग में लाभदायक है. खीरे का रस पथरी के रोग, पेशाब में जलन, रुकावट और मधुमेह में भी लाभदायक है. इसका उपयोग आँखों के नीचे काले मार्क हटाने के लिए भी किया जाता है. खीरे का उपयोग त्वचा, गुर्दे और हृदय की समस्याओं के उपचार में किया जाता है. यह एक बेल जैसा पौधा है जो गर्मियों में सब्जी के रूप में पूरे भारत में उगाया जाता है. खीरे के बीज का उपयोग तेल निकालने के लिए किया जाता है, जो शरीर और मस्तिष्क के लिए बहुत अच्छा होता है. खीरे में 96 प्रतिशत पानी होता है, जो गर्मी के मौसम में अच्छा होता है. इसको मिट्टी की अलग-अलग किस्मे जैसे की रेतली दोमट से भारी मिट्टी में उगाया जा सकता हैं. खीरे की फसल के लिए दोमट मिट्टी जिसमे जैविक पोषक तत्वों की मात्रा हो और पानी का अच्छा निकास हो, उपयुक्त रहती हैं. खीरे की खेती के लिए मिट्टी का पी एच 6-7 के मध्य होना चाहिए.
खेत की तैयारी
खीरे की खेती के लिए, अच्छी तरह से तैयार और नदीन रहित खेत की जरूरत होती है| मिट्टी को अच्छी तरह से भुरभुरा बनाने के लिए, रोपाई से पहले 3-4 बार खेत की अछी प्र्कार से जुताई करें. खीरे की खेती नदियों तालाबो के किनारे भी की जा सकती है और इसमें पानी निकालने के लिये नाली बनाना चाइए जिससे पानी इकट्ठा ना हो सके.
बुवाई का समय और विधि
ग्रीष्म ॠतु के लिए: फरवरी-मार्च
वर्षा ॠतु के लिए: जून-जुलाई
बिजाई का ढंग
बीज को ढाई मीटर की चौड़ी बेड पर दो-दो फुट के फासले पर बोया जा सकता है. खीरे की बिजाई उठी हुई मेढ़ो के ऊपर करना ज्यादा अच्छा हैं. इसमें मेढ़ से मेढ़ की दूरी 1 से 1.5 मीटर रखते है. जबकि पौधे से पौधे की दुरी 60 सें.मी. रखते हैं. बिजाई करते समय एक जगह पर कम से कम दो बीज लगाएं.
उन्नतशील किस्मे
पंजाब नवीन खीरे की अच्छी किस्म है. इस किस्म में कड़वाहट कम होती है और इसका बीज भी खाने लायक होता है. इसकी फसल 72 दिन मे तुड़ाई लायक हो जाती हैं. इसकी औसत पैदावार 45 से 50 कुंतल प्रति एकड़ तक होती है. हिमांगी, जापानी लॉन्ग ग्रीन, जोवईंट सेट, पूना खीरा, पूसा संयोग, शीतल, फ़ाईन सेट, स्टेट 8 , खीरा 90, खीरा 75, हाईब्रिड1 व हाईब्रिड-2, कल्यानपुर हरा खीरा इत्यादि प्रमुख है.
खाद तथा उर्वरक की मात्रा
खीरे की अच्छी फसल के लिए खेत की तैयारी करते समय ही 6 टन गोबर की अच्छी तरह सड़ी खाद खेत में जुताई के समय मिला दें. 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 12 किलोग्राम फास्फोरस व 10 किलोग्राम पोटाश की मात्रा खीरे के लिए पर्याप्त रहती है. खेत में बिजाई के समय 1/3 नाइट्रोजन, फास्फोरस की पूरी मात्रा तथा पोटाश की पूरी मात्रा डाल दे. बची हुई नाइट्रोजन को दो बार में बिजाई के एक महीने बाद व फूल आने पर खेत की नालियों में डाल कर मिट्टी चढ़ा दें.
ग्रीन हाऊस मे खीरे की खेती
खरपतवार नियन्त्रण
किसी भी फसल की अच्छी पैदावार लेने की लिए खेत में खरपतवारो का नियंत्रण करना बहुत जरुरी है. इसी तरह खीरे की भी अच्छी पैदावार लेने के लिए खेत को खरपतवारों से साफ रखना चाहिए. इसके लिए बरसात में 3-4 बार खेत की निराई-गुड़ाई करनी चाहिए.
रोग नियंत्रण
मोजैक वायरस: खीरे में विषाणु रोग एक आम रोग होता है, यह रोग पौधों के पत्तियों से शुरू होती है और इसका प्रभाव फलो पर भी पड़ता है फलो का आकार छोटी और टेडी मेडी हो जाती है. रोग को नीम का काढ़ा या गौमूत्र में माइक्रो झाइम को मिला कर इसे 250 मिलिलीटर प्रति एकड फसलो पर छिडकाव करने से दूर किया जा सकता है
एन्थ्रेक्नोज: यह एक रोग फूफदजनित रोग है है यह रोग मौसम के बदलाव हो के कारण होता है इस रोग में फलो तथा पत्तियों पर धब्बे हो जाते है . इस रोग को नीम का काढ़ा या गौमूत्र में माइक्रो झाइम को मिला कर इसे 250 मिलिलीटर प्रति एकड फसलो पर छिडकाव करने से दूर किया जा सकता है
चूर्णिल असिता: यह रोग ऐरीसाइफी सिकोरेसिएरम नाम के एक फफूंदी के कारण होता है | यह रोग मुख्यता पत्तियों पर होती है और यह धीरे धीरे तना फूल और फलो को प्रभावित करती है | इस बीमारी में पत्तियों के ऊपर सफेद धब्बे उभर जाते है और धीरे धीरे ये धब्बे बड़ने लगते है सर्वांगी कवकनाशी बाविस्टिन 0.05 प्रतिशत (0.5 ग्राम प्रति लीटर जल ) घोल के तीन छिडकाव 15 दिन के अन्तर पर करने चाहियें.
बोट्राइटिस: इस रोग से खीरे कि फसल को भारी नुकसान होत है. यह फगंल जनित रोग है जो वायु द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर फैलता है. इस रोग के लिये कम तापमान व अधिक आर्द्रता वाला मोसम अनुकूल रहता है. इस रोग कि रोकथाम के लिये खेत कि निराई गुडाई ठीक प्रकार से करनी चाहियें रोग ग्रसित पत्तियो को तोडकर बहार कर देना चाहियें खेत कि साफ सफाई ठीक ठीक प्रकार से करनी चाहियें.
कीट नियंत्रण
एफिड (Aphids): ये बहुत ही छोटे आकार के कीट होते ह. ये कीट पौधे के छोटे हिस्सों पर हमला करते है तथा उनसे रस चूसते है. इन कीटो की संख्या बहुत तेजी से बडती है एव इसके प्रकोप की वजहा से पोधो की पत्तियाँ पीलापन लिए रंग में बदलने लगती है. इसकी रोकथाम के लिये 1 ली0/ हे0 की दर से मेटासिस्टाक्स 25 ई. सी. अथवा डाईमेक्रान 100 ई. सी. या नूवाक्रान 40 ई. सी. का 600 लीटर पानी के साथ छिडकाव करना चाहिए. पांच से छह लीटर मट्ठा 100-150 पानी में मिलाकर एक एकड़ खेत में छिड़काव करने से इस कीट की रोकथाम की जा सकती है.
रेड बीटल (Red Beetle)
ये लाला रंग तथा 5-8 सेमी लबे आकार के कीट होते है ये कीट पत्तियों के मध्य वाले भाग को खा जाती है जिसके कारण पौधों का विकास अच्छी प्रकार से नहीं होता है, बीमारी के लिए कीट-विरोधी जातियों को प्रयोग करना चाहिए तथा कीटों के लिए डी.टी.टी. पाउडर का छिड्काव करना चाहिए .
एपिलैकना बीटल (Epilachna Beetle)
ये किट पौधों के पत्तियों पर आक्रमण करती है ये पत्तियों को खाकर उन्हें नष्ट कर देती है | इसकी रोकथाम के लिये 1 ली0/ हे0 की दर से मेटासिस्टाक्स 25 ई. सी. अथवा डाईमेक्रान 100 ई. सी. या नूवाक्रान 40 ई. सी. का 600 लीटर पानी के साथ छिडकाव करना चाहिए
रासायनिक दवाओं के प्रयोग के बाद 10-15 दिन तक फलों का प्रयोग न करें तथा बाद में धोकर प्रयोग करें .
यह बुवाई लगभग दो माह बाद फल देने लगता है. जब फल अच्छे मुलायम तथा उत्तम आकार के हो जायें तो उन्हें सावधानीपूर्वक लताओं से तोड़कर अलग कर लिया जाता हैं इस तरह प्रति हे. 50 -60 कुन्टल फल प्राप्त किये जा सकते है.
भण्डारण (Storage)
तरबूजे को तोड़ने के बाद 2-3 सप्ताह आराम से रखा जा सकता है . फलों को ध्यान से ले जाना चाहिए . हाथ से ले जाने में गिरकर टूटने का भी भय रहता है . फलों को 2 से 5 °C तापमान पर रखा जा सकता है . अधिक लम्बे समय के लिए रेफरीजरेटर में रखा जा सकता है.
लेखक : सुरेन्द्र कुमार, शोध छात्र
पादप रोग विज्ञान विभाग
व
डी पी सिहं
संयुक्त निदेशक