विश्व में उगायी जाने वाली फसलों में गेहूँ का प्रथम स्थान है। यह एक बहुउपयोगी महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है। भारत में इसका स्थान धान के बाद दूसरा है और रबी ऋतु की फसलों में प्रथम है। हमारे देश में वर्ष 2016-17 में इसकी खेती 30.5 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल में की गई थी जिससे 98.3 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त हुआ था। इसका सर्वाधिक क्षेत्रफल गंगा के मैदानी इलाकों में है जहाँ इसकी खेती खरीफ फसलों की कटाई के बाद की जाती है, परन्तु इसका अधिकांश क्षेत्रफल धान आधारित भूमियों के अंर्तगत आता है। अधिकांश किसान धान की लम्बी अवधि वाली किस्मों को उगाते हैं जिसकी कटाई देर से होती है जिससे कि खेत देर से खाली होता है और परम्परागत तरीके से खेत की तैयारी करने से रबी फसल की बुआई में देरी होती है। देर से बुआई होने पर पौध स्थापन एवं फसल की शरदकालीन अवधि कम हो जाती है जिससे इसकी वानस्पतिक वृद्धि भी कम हो जाती है और वातावरण में तापमान में बढ़ोत्तरी होने से पौध में पुष्पन जल्दी आ जाता है। परिणामस्वरूप यह देखा गया है कि धान-गेंहूँ फसल प्रणाली में गेंहूँ की उपज में धान की तुलना में अधिक गिरावट होती है।
धान-गेंहूँ फसल पद्धति विश्व में अपनायी जाने वाली एक मुख्य फसल प्रणाली है। विश्व में इसके अर्न्तगत लगभग 26 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल हैं जिसमें मुख्य रुप से दक्षिणी एशिया के देश जैसे कि भारत, नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश एवं चीन हैं। भारत में लगभग 10.5 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल में यह प्रणाली अपनायी जाती है, जो कि मुख्य रुप से गंगा के मैदानी क्षेत्रों विशेषकर पंजाब से लेकर पश्चिम बंगाल तक फैली हुई है। पंजाब, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश में धान के बाद लगभग 95 प्रतिशत क्षेत्रफल में गेहूँ की खेती की जाती है। इस फसल चक्र के विस्तार में हरित क्रान्ति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है क्योंकि हरित क्रान्ति में इन दोनों फसलों की किस्में विकसित की गई जो अधिक उपज देने वाली, प्रकाश असंवेदी तथा उर्वरक एवं सिंचाई के अनुक्रियाशील थी। साथ ही साथ इनकी खेती में पोषक तत्व एवं जल प्रबंधन पर भी जोर दिया गया। वर्तमान में यह प्रणाली देश की बढ़ती जनसंख्या को खाद्य आपूर्ति करने में सक्षम है परन्तु लगातार एक ही प्रणाली के अपनाने से बहुत सारी कठिनाईयाँ उत्पन्न हो रही हैं जैसे- मृदा उर्वरता में ह्रास, प्रमुख पोषक तत्वों के साथ साथ गौण पोषक तत्वों की मृदा में कमी, मृदा लवणीयता/क्षारीयता में वृद्धि, विभिन्न रोग एवं कीटों का प्रकोप, नये खरपतवारों का प्रकोप एवं खरपतवारों में नींदानाशी प्रतिरोधिता का विकास, पारिस्थितिकी असंतुलन इत्यादि। उपरोक्त समस्याओं के समाधान हेतु कुछ संभावित निम्नलिखित उपाय हो सकते हैं.
1. संरक्षित कृषि
2. कुशल सिंचाई प्रबंधन
3. समन्वित खरपतवार प्रबंधन
4. समन्वित कीट एवं रोग प्रबंधन
5. समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन
6. फसल विविधीकरण
गेहूँ की उन्नत सस्य तकनीक के निम्नलिखित उपाय हो सकते हैं-
उपयुक्त बीज चयन की विधि- विभिन्न क्षेत्रों हेतु सिफारिश उन्नत किस्मों के स्वस्थ, प्रमाणित एवं शुद्ध बीज का चयन कर किसी प्रमाणित संस्था से ही प्राप्त करना चाहिए। खेत में बोया जाने वाला बीज किसी अन्य फसलों के बीज और खरपतवार आदि के बीजों से मुक्त होना चाहिए।
बीज उपचार- बीजों को बीज एवं मृदा जनित रोगों से बचाने के लिए बुआई पूर्व फफूंदनाशक दवा वीटावेक्स 75 डब्ल्यू. पी. की 2.5 ग्राम अथवा कार्बेंडाजिम की 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। बोये जाने वाले खेत में दीमक के प्रकोप की संभावना होने पर बीज को फफूंदनाशक दवा से उपचारित करने के बाद कीटनाशक फिप्रोनिल के 6 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।
बुआई का समय- किसी भी फसल की उपज को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक उसकी बुआई का समय है। प्रत्येक फसल को उसकी अनुकूल समय पर बुआई करने पर ही अच्छी उपज प्राप्त होती है। बुआई का समय मुख्यतयः जलवायु दशा, सिंचाई की उपलब्धता एवं पूर्व फसल पर निर्भर करती है। असिचिंत दशा में गेंहूँ की बुआई अक्टूबर के दूसरे पखवाड़े से लेकर नवम्बर के प्रथम पखवाड़े तक करना अच्छा रहता है। सिचिंत दशा में इसकी बुआई नवम्बर माह उपयुक्त होती है परन्तु जिन खेतों में लंबी अवधि वाली धान की कटाई के बाद गेंहूँ की बुआई करनी है वहाँ इसे दिसम्बर माह के प्रथम पखवाड़ा तक की जा सकती है। देर से बुआई की स्थिति में गेंहूँ की देर बोनी हेतु उपयुक्त किस्मों का चयन करना चाहिए। परन्तु फिर भी देर से बुआई करने पर फसल की उपज में कमी आती है। अतः यह कोशिश की जाये की जिन खेतां में धान के बाद गेंहूँ उगाना है उसमें धान की शीर्घ एवं मध्यम अवधि में पकने वाली किस्मों को उगाना चाहिए जिससे की समय पर गेंहूँ की बुआई की जा सके और अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सके।
गेंहूँ बुआई की मुख्य विधियाँ
सीडड्रील की सहायता से कतार बोनी- यह गेंहूँ बुआई की मुख्य विधि ह,ै इसमें 22.5 सेन्टीमीटर अंतराल की कतार पर बीज की बुआई बीज-सह-उर्वरक सीडड्रील की सहायता से की जाती है। इस विधि द्वारा समय से बुआई करने पर 100 कलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए भूमि की तैयारी एक बार डिस्क हैरो या मिट्टी पलट हल से जुताई करने के बाद 2 बार कल्टीवेटर की सहायता से जुताई कर पाटा चला दिया जाता है। इस विधि से बुआई करने पर परम्परागत विधि की तुलना में कम बीज की आवश्यकता होती है साथ ही साथ उर्वरक बीज के नीचे स्थापित हो जाता है जिससे उर्वरकों की उपयोग दक्षता में भी वृद्धि होती है। इसप्रकार, उपज में भी वृद्धि एवं कतारों के बीच खरपतवारों के यांत्रिक नियंत्रण में भी सुविधा होती है।
शून्य जुताई सीधी बुआई- गेंहूँ बुआई की यह एक उन्नत तकनीक है, जिसमें शून्य-भूपरिष्करण बीज-सह-उर्वरक सीडड्रील की सहायता से खेत की बिना जुताई के बीज की कतार में सीधी बुआई कर दी जाती है। जिन खेतों में धान के बाद गेंहूँ की बुआई करनी होती है वहाँ पर इस विधि को अपनाने से समय रहते बुआई संभव हो जाती है।
शून्य जुताई सीधी बुआई के लाभ-
1. समय पर गेंहूँ की बुआई- बिना जुताई के फसल की बुआई हो जाने से समय की बचत होती है और जिन भूमियों में धान की फसल की कटाई देरी से होती है वहाँ भी समय पर गेंहूँ की बुआई की जा सकती है।
2. उत्पादन लागत में कमी- भूमि की तैयारी में लगने वाले खर्चे की बचत हो जाती है जिससे लगभग 1500-2000 रुपये प्रति हेक्टेयर की बचत डीजल, मजदूर एवं नींदानाशक की कम आवश्यकता से होती है।
3. पर्यावरण प्रदूषण में कमी- फसल अवशेषों को न जलाने एवं भूमि की तैयारी में कम डीजल की खपत होती है इसप्रकार वायुप्रदूषक के उत्सर्जन में कमी आती है और पर्यावरण प्रदूषण में कमी होती है।
4. एकवर्षीय खरपतवारों की सघनता में कमी- गेंहूँ में शून्य भू-परिष्करण के अपनाने से एकवर्षीय खरपतवार विशेषकर गुल्ली डंडा एवं बथुआ के सघनता में कमी आती है क्योंकि इन खरपतवारों के बीज जुताई किये हुए खेतों में ज्यादा अंकुरित होते हैं।
5.उपज में वृद्धि- अच्छे से प्रबंधित शून्य भू-परिष्करण से बोये गेंहूँ में परम्परागत विधि की तुलना में 4-6 प्रतिशत तक उपज में बढ़ोत्तरी होती है क्योंकि इस विधि से फसल की बुआई समय पर हो जाती है।
शून्य जुताई सीधी बुआई में ध्यान रखने योग्य बातें-
1. बुआई के समय खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए जिससे बीजों का अकुंरण अच्छा हो।
2. पूर्व फसल की बुआई/रोपाई कतारों में होनी चाहिए जिससे इन कतारों के मध्य शून्य जुताई बीज सह उर्वरक सीडड्रील से बुआई करने में पूर्व फसल का अवशेष व्यवधान उत्पन्न नहीं करेगा।
3. यदि आवश्यक हो तो बुआई पूर्व उपस्थित खरपतवारों एवं फसल के अवशेषों को नष्ट करने के लिए समूल नींदानाशक ‘ग्लाइफोसेट‘ का प्रयोग करना चाहिए।
4. बुआई के 15-20 दिन बाद आवश्य ही पहली सिंचाई कर देनी चाहिए जिससे किरीट जड़ों के फुटान एवं फैलाव हेतु अनूकुल वातावरण का निर्माण हो सके।
कूंड़ सिंचाई मेड़ बुआई विधि- इस विधि में दो कूंड़ो के बीच चौड़ी बिस्तरनुमा मेड़ बनाई जाती है जिसमें गेंहूँ की 2-3 कतार बोई जाती है तथा कूंड़ों में सिंचाई की जाती है जिससे पर्याप्त मात्रा में सिंचाई जल की बचत होती है। इसप्रकार कम पानी की उपलब्धता की दशा में भी अधिक क्षेत्रों में फसलों की बुआई की जा सकती है। इस विधि से परम्परागत विधि के बराबर या अधिक उपज की प्राप्ति होती है। आजकल कूंड़ एवं मेंड़ बनाने के लिए एक विशेष प्रकार के यंत्र विकसित किये गये हैं जिससे आसानी से एक समान ऊंचाई के बिस्तरनुमा मेंड़ तैयार हो जाते है।
बीज की मात्रा- किसी भी फसल की बीज की मात्रा फसल की किस्म, बीज की अंकुरण प्रतिशत, बोने की विधि, बुआई का समय, मृदा में नमी की मात्रा, बीज का आकार आदि पर निर्भर करता है। सामान्यतः उपयुक्त समय में सीडड्रील से बुआई करने पर 100 कलोग्राम बीज एक हेक्टेयर हेतु पर्याप्त होती है। देर से बुआई करने पर 25 प्रतिशत अतिरिक्त बीज की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार कूंड़ सिंचाई मेड़ बुआई विधि से बुआई करने पर 75 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। इसी प्रकार मृदा में पर्याप्त नमी न होने की दशा में भी 25 प्रतिशत अतिरिक्त बीज की आवश्यकता होती है।
कतार से कतार एवं पौध-पौध की दूरी- सीडड्रील को इस प्रकार समायोजित करना चाहिए जिससे सिंचित दशा में गेंहूँ की कतार से कतार की दूरी 22.5 सेन्टीमीटर. तथा पौध से पौध की दूरी 5-7 सेन्टीमीटर. होनी चाहिए तथा असिंचित दशा में कतार से कतार की दूरी 25-30 सेन्टीमीटर. और पौध से पौध की दूरी 3-5 सेन्टीमीटर. होनी चाहिए। यदि देर से बुआई की जा रही हो तब कतार के अंतराल को कम कर 15-18 सेन्टीमीटर. रखना चाहिए।
पोषक तत्व प्रबंधन- हरित क्रान्ति के बाद से देश में गेंहूँ के लिए नत्रजन, फास्फोरस और पोटैशियम हमेशा से ही किसानों के लिए पसंदीदा उर्वरक रहा है। बौनी मेक्सिकन गेंहूँ के उत्पादन के साथ ही अकार्बनिक उर्वरको का उपयोग बढ़ता चला गया। आज की बढ़ती हुई जनसंख्या दर को भरपूर खाद्यान्न उपलब्ध कराने के लिए अकार्बनिक उर्वरकों पर निर्भरता बढ़ना एक चिंता का विषय है। अगर उचित मृदा प्रबंधन के साथ सही मात्रा में उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाय तो निश्चित रुप से किसान भाइयों को फसल का उचित मूल्य मिल सकेगा साथ ही साथ मृदा स्वास्थ्य भी बरकरार रहेगा।
सारणी 1: सिंचित भूमि में सामान्यतः नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटेशियम की विभिन्न राज्यों में अनुशंसा
नत्रजन
गेहूँ का पौधा फूल आने के समय सबसे अधिक नत्रजन लेता है लेकिन यह पक्रिया फसल पकने तक चलती रहती है। गेंहूँ की पत्तियों में 2.5 प्रतिशत या इससे ऊपर नत्रजन की मात्रा सही मानी जाती है। नत्रजन के अभाव में पौधों की पत्तियाँ पीली पड़ने लगती है। इसकी कमी की पहचान आसानी से की जा सकती है। अगर पौधे की नीचली पत्तियाँ पीले रंग की दिखाई दें तो यह नत्रजन के अभाव को दर्शाती हैं। नत्रजन की पूरी मात्रा एक बार में न देकर दो या तीन भागों में बांटकर किया जाना चाहिये जिससे विभिन्न माध्यमों से होने वाली नत्रजन की हानि कम हो सकती है। नत्रजन की 50 प्रतिशत मात्रा बुआई के समय तथा शेष 50 प्रतिशत को दो भागों में बांटकर पहली बुआई के लगभग 30 दिन बाद कल्ले आते समय तथा दूसरी बुआई के 45-60 दिन बालियाँ आने से पूर्व करना चाहिए।
फास्फोरस
गेंहूँ के लिए फास्फोरस का बहुत अधिक महत्व है। गेंहूँ की फसल पकने के दो सप्ताह पहले तक फास्फोरस पौधे द्वारा लिया जाता है। इसकी कमी से जड़ों का विकास अवरूद्ध हो जाता है तथा कम दानें और दाने का आकार छोटा हो जाता है। पानी में घुलने वाला फास्फेटिक उर्वरक जैसे कि डी.ए.पी. और सिंगल सुपर फास्फेट दानें के रुप में ज्यादा प्रभाव दिखाते है। सामान्यतः फास्फेटिक उर्वरक को बुआई के समय बीज सह उवर्रक सीडड्रील की सहायता से दिया जाना चाहिये।
पोटैषियम
पोटैशियम हमेशा से ही गेंहूँ के लिए एक जरुरतमंद उर्वरक रहा है। गंगा के मैदानी इलाकों और तराई क्षेत्रों में 50-60 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग उपयुक्त माना गया है। इसकी कमी से गेंहूँ के दाने की उत्पादकता और गुण दोनो पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। मिट्टी की जाँच करके इसका समुचित इस्तेमाल किया जाना चाहिए। गेंहूँ के लिए म्यूरेट ऑफ पोटाश और पोटैशियम सल्फेट दोनों में किसी एक का इस्तेमाल कर सकते है। इसका इस्तेमाल बुआई के समय या बोने से पहले करना चाहिए।
सल्फर या गंधक
भारत में करीब 41 प्रतिशत मृदाओं में गंधक की कमी देखी गयी है। गंधक रहित उर्वरकों का उपयोग और एक ही प्रकार की ज्यादा फसल लेना इसकी कमी के मुख्य कारण हैं। गेंहूँ के पौधे में इसकी कमी देखकर पहचानी जा सकती है। ऊपरी नई पत्तियां का पीला पड़ना इसकी कमी के मुख्य लक्षण हैं। सामान्यतः किसान पौधे की पत्तियाँ पीले पड़ने पर नत्रजन का छिड़काव करते है जबकि इसके अभाव को गंधक के उचित उपयोग द्वारा पूरा किया जा सकता है न कि नत्रजन के उपयोग से।
सारणी 2: गंधक के कुछ मुख्य स्त्रोत और उनका अनुपात
सूक्ष्म पोषक तत्व
गेंहूँ में सामान्यतः जिंक, आयरन, कॉपर, मैंग्नीज और बोरॉन की कमी देखी गयी है जिनमें जिंक की कमी सबसे ज्यादा प्रभावित करती है। जिंक को मुख्य रुप से जिंक सल्फेट के रुप मे उपयोग करते है। जिंक सल्फेट 25 कलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में बुआई के पहले दिया जाता है। कभी-कभी छिड़काव के माध्यम से भी इसकी कमी को दूर किया जाता है जिसमें 5 कलोग्राम जिंक सल्फेट और 2.5 कलोग्राम चूना को 1000 लीटर पानी में मिलाकर एक हेक्टेयर गेंहूँ के लिए उपयोग किया जाता है। आजकल बोरान की कमी मुख्यतयाः गेंहूँ की फसल में देखी जा रही है। इसकी वजह से गेंहूँ के उत्पादन के साथ ही साथ इनके दानों पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। इस कमी को दूर करने के लिए बोरेक्स की मात्रा 10-20 कलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी मे किया जा सकता है।
जल प्रबंधन- गेंहूँ की फसल को लगभग 300-400 सेन्टीमीटर. जल की आवश्यकता होती है। सिंचाई की आवश्यकता विभिन्न जलवायु परिस्थिति, मृदा के प्रकार एवं बुआई के समय पर निर्भर करता है। सामान्यतः इसे 4-6 सिंचाई की जरुरत होती है परन्तु सिंचाई हेतु जल की उपलब्धता के आधार पर सिंचाई की योजना इस प्रकार करनी चाहिए जिससे उपलब्ध जल का सदुपयोग करते हुए अधिक उपज प्राप्त की जा सके। जल की उपलब्धता एवं फसल की विभिन्न क्रान्तिक अवस्थाओं को ध्यान में रखकर सिंचाई योजना को नीचे सारणी में दर्शाया गया है।
सारणी 3: गेंहूँ की फसल में सिंचाई हेतु क्रान्तिक अवस्थाएं
सिंचाई की विधियाँ- सिंचाई हेतु उपलब्ध जल, किसान की परिस्थिति एवं भूमि की दशा के आधार पर गेंहूँ मे उपयोग होने वाली सिंचाई की प्रमुख विधियाँ हैं- बाढ़ (सतह प्लावन विधि), पट्टी विधि, थाला विधि, फव्वारा विधि। उपरोक्त में जल प्लावन एवं पट्टी विधि ज्यादा प्रचलित है। सिंचाई हेतु जल की उपलब्धता कम होने की दशा में फव्वारा विधि लाभकारी होती है, इससे कम पानी में अधिक क्षेत्र में सिंचाई की जा सकती है।
खरपतवार प्रबंधन- खरपतवारों से गेंहूँ की उपज में 25-30 प्रतिशत तक हानि होती है। गेंहूँ फसल की खरपतवार प्रतिस्पर्धा का क्रान्तिक अवस्था बुआई के बाद 30-45 दिनों तक रहता है, इस दौरान गेंहूँ की फसल को खरपतवार मुक्त रखना चाहिए। खरपतवार नियंत्रण हेतु समन्वित खरपतवार प्रबंधन के सिंद्धान्तों को अपनाना चाहिये। इसके लिये स्वस्थ एवं खरपतवार बीज मुक्त जैविक खादों का प्रयोग करना चाहिये। सम्भव हो तो बुआई पूर्व पलेवा करके खरपतवारों के उगने पर जुताई कर नष्ट करना चाहिए। लगातार एक ही प्रकार की फसल न उगाकर फसल चक्र अपनाना चाहिए। बुआई के 25-30 दिन के बाद कतारों के बीच ‘हो‘ या ‘वीडर‘ चलाकर खरपतवारों को नष्ट कर सकते हैं। मजदूर उपलब्ध हों तो दो निराई क्रमशः बुआई के 20-25 एवं 40-45 दिन बाद करनी चाहिए।
सारणी 4: खरपतवारों के नियंत्रण के लिए रासायनिक नींदानाशकों की उपयोग विधि
नोटः नींदानाशकों को 600 लीटर पानी प्रति हेक्टेयर की दर से घोलकर उपयोग करना चाहिए।
रोग - गेंहू में लगने वाले प्रमुख रोग गेरुआ, कंडवा रोग, अल्टरनेरिया पर्ण दाग इत्यादि हैं।
रोगों का प्रबंधन- गेंहूँ को रोगों से बचाने के लिए निम्न उपाय करने चाहिए -
विभिन्न रोगों की रोग प्रतिरोधी किस्मों को उगाना चाहिए।
बीज जनित एवं मृदा जनित रोगों से बचाव हेतु बीजों को बुआई पूर्व वीटावेक्स 2.5 ग्राम अथवा ट्राइकोडर्मा विरडी 4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से अवश्य उपचारित करना चाहिए।
फसल की समय पर बुआई करनी चाहिए।
दो-तीन साल के अंतराल में फसल चक्र अपनाना चाहिए।
समन्वित पोषक तत्व एवं नत्रजन की संतुलित मात्रा में उपयोग करना चाहिए।
गेरुआ रोग के लक्षण दिखाई पड़ने पर प्रोपिकोनाजोल 0.1 प्रतिशत की दर से छिड़काव करना चाहिए तथा दूसरा छिड़काव प्रथम छिड़काव के 10-15 दिन बाद करना चाहिए।
कंडवा रोग से ग्रसित पौधों को उखाडकर जलाकर या भूमि में गाड़कर नष्ट कर देना चाहिए।
कीटः तना छेदक, दीमक, सैनिक कीट आदि का प्रकोप गेंहूँ की फसल में होता है
दीमक- यह गेंहूँ की जड़ों एवं तनों को खाकर नष्ट कर देतें हैं इसके नियंत्रण के लिए खेत की सिंचाई एक नियमित अंतराल पर करना चाहिए। यदि गोबर खाद का प्रयोग किया जाता है तो अच्छी सड़ी गोबर खाद का प्रयोग करना चाहिए। क्लोरपायरीफॉस 3 लीटर को 50 किलोग्राम रेत में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। खेत में दीमक के प्रकोप होने की पूर्व में जानकारी होने पर बीज को फिप्रोनिल के 6 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बुआई पूर्व उपचार करना चाहिए।
तना छेदक एवं सैनिक कीट
तना छेदक एवं सैनिक कीट की रोकथाम हेतु क्यूनॉलफॉस 1 लीटर सक्रिय तत्व को 600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
कटाई- पौधों में बाली आने के कुछ दिनों बाद जब पौधे पीले होकर सूखने लगते हैं यह फसल परिपक्वता के लक्षण हैं तथा जब दाने कठोर हो जायें एवं उसमें 20-25 प्रतिशत नमी हो तब यह कटाई हेतु उपयुक्त अवस्था माना जाता है। कटाई हंसिया या दरॉती की सहायता से की जाती है। काटे हुए फसल को 3-4 दिन तक खेत में सूखने दिया जाता है। इसके बाद बंडल बनाकर खलिहान में लाकर थ्रेसर से मड़ाई कर दानों को पौधों से अलग कर लिये जाते हैं। मड़ाई कर अलग किये गये दानों को साफ कर सूखा लिये जाते हैं। आजकल कम्बाइन हारवेस्टर की सहायता से कटाई के साथ-साथ मड़ाई भी हो जाती है। दानों को 14 प्रतिशत नमी अवस्था तक सुखाने के बाद बोरों में भरकर साफ एवं सूखे भण्डार कक्ष में भण्डारित करना चाहिये।
उपज- किसी भी फसल की उपज उसकी फसल प्रबंधन, किस्म एवं जलवायु परिस्थिति पर निर्भर करती है। सामान्यतः सिंचित दशा में 40-45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा असिंचित दशा में 20-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है।
लेखक :तेज राम बंजारा1, आशीष राय2, सुमित राय3,’, तेजबल सिंह1 और चंदन कुमार1
1सस्य विज्ञान विभाग, कृषि विज्ञान संस्थान, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, 221 005 वाराणसी (उ.प्र.)
2मृदा विज्ञान एवं कृषि रसायन विभाग, कृषि विज्ञान संस्थान, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, 221 005 वाराणसी (उ.प्र.)
3गोविन्द बल्लभ पंत राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण एवं सतत् विकास संस्थान, कोसी-कटारमल, अल्मोड़ा-263643, उत्तराखण्ड
*Corresponding Email id: sumitssac101@gmail.com