Wheat Crop: देश के किसान इन दिनों रबी सीजन में बोए जाने वाली फसलों की तैयारी में लगे हुए है. गेहूं इस सीजन में सबसे ज्यादा बोई जाने वाली फसल है. देश के लाखों किसान अच्छे मुनाफे की आस में गेहूं की खेती/Gehu ki Kheti करते हैं, लेकिन कई बार गेहूं की फसल में रोग लगने से किसान को काफी नुकसान पहुंचता है. ऐसे में किसान इन रोगों से फसलों को बचाने के लिए नए-नए तरीके अपनाते हैं. आइए आज हम आपको कृषि जागरण के इस आर्टिकल में इन रोगों के लक्षण और बचाव के तरीके के बारे में जानेंगे, जिससे फसल सुरक्षित रहेगी और पैदावरी में भी बढ़ोतरी होगी.
गेहूं के फसल में लगने वाले ये 5 रोग/5 Diseases Cause Delay in Wheat Crop
भूरा रतुआ रोग
यह रोग गेहूं के निचले पत्तियों पर ज्यादातर लगते हैं, जो नारंगी और भूरे रंग के होते हैं. यह लक्षण पत्तियों की उपर और निचे के सतह पर दिखाई देते हैं. जैसे-जैसे फसलों की अवस्था बढ़ती जाती है वैसे-वैसे इन रोगों का प्रभाव भी बढ़ने लगता है. यह रोग मुख्य रूप से देश के उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में जैसे की पश्चिमी बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि में पाया जाता है कुछ हद तक इसका प्रकोप मध्य भारत क्षेत्रों में भी देखा जाता है.
प्रबन्धन: गेहूं के फसलों को भूरा रतुआ रोग से बचाने के लिए एक किस्म को अधिक क्षेत्र में ना लगाएं. किसी एक किस्म को बहुत बड़े क्षेत्र में उगाने से उसका रोग के प्रति संवेदनशील होने का खतरा बढ़ सकता है. इससे रोग का फैलाव तेज हो जाता है. इस रोग के प्रकोप को कम करने के लिए प्रोपिकोनाजोल 25 ई.सी. (टिल्ट) या टेबुकोनाजोल 25 ई.सी. का 0.1 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव जरूर करें. रोग के प्रकोप तथा फैलाव को देखते हुए दूसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंदर ही कर दें.
काला रतुआ रोग
काला रतुआ रोग भूरे रंग के होते हैं, जो गेहूं के तने पर लगते हैं. इस रोग का प्रभाव तनों से होते हुए पत्तियों तक पहुंचाते हैं. जिसके कारण तने कमजोर हो जाते हैं और संक्रमण गंभीर होने पर गेहूं के दाने बिलकुल छोटे और झिल्लीदार बनते हैं जिससे पैदावार कम होती जाती है. इस रोग से दक्षिणी पहाड़ी क्षेत्र की फसलें ज्यादा प्रभावित होते हैं और कुछ हद तक इसका प्रकोप मध्य भारत के क्षेत्रों में देखा जाता है.
प्रबंधन: गेहूं की फसल को भूरा रतुआ रोग से बचाने के लिए गेहूं की एक किस्म को अधिक क्षेत्र में ना लगाएं. खेतों का समय-समय पर निगरानी करते रहे और वृक्षों के आस-पास उगाई गई फसल पर अधिक ध्यान दें. इस रोग के प्रकोप को कम करने के लिए प्रोपिकोनाजोल 25 ई.सी. (टिल्ट) या टेबुकोनाजोल 25 ई.सी. का 0.1 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव जरूर करें. रोग के प्रकोप तथा फैलाव को देखते हुए दूसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंदर ही कर दें.
पीला रतुआ रोग
गेहूं की फसल में पीला रतुआ रोग में पत्तों पर पीले रंग की धारियां दिखाई देती है. इन पत्तियों को छुने पर पाउडर जैसा पीला पदार्थ हाथो पर चिपकने लगता है. जोकि इस रोग का मुख्य लक्षण है. यह रोग गेहूं की फसल को तेजी से प्रभावित करता है और फसलों को ज्यादा नुकसान पहुंचाता है. इस रोग का प्रकोप मुख्य रूप से उत्तरी पहाड़ी क्षेत्रों जैसे की हिमाचल प्रदेश व जम्मू एंव कश्मीर और उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्रो में जैसे की पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि में पाया जाता है.
प्रबंधन: गेहूं की ऐसी किस्मों का चयन करें जो पीला रतुआ रोग के प्रति प्रतिरोधी हों और उन्हें अधिक क्षेत्र में लगाने से बचें. और खेतों की समय-समय पर निगरानी करते रहें. विशेष रूप से उन क्षेत्रों में ध्यान दें जहां वृक्षों के आस-पास गेहूं की फसल उगाई गई हो, क्योंकि यहां इस रोग का अधिक प्रकोप हो सकता है. साथ ही पीला रतुआ रोग के प्रकोप को नियंत्रित करने के लिए, प्रोपिकोनाजोल 25 ई.सी. (टिल्ट) या टेबुकोनाजोल 25 ई.सी. का 0.1 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव अवश्य करें.
दीमक
दीमक गेहूं की फसल में सबसे अधिक लगता है. यह फसल में कॉलोनी बनाकर रहते है. दिखने में यह पंखहीन छोटे और पीले/सफेद रंग के होते हैं. दीमक के प्रकोप की संभावना ज्यादातर बलुई दोमट मिट्टी, सूखे की स्थिति में रहती हैं. यह कीट जम रहे बीजों को और पौधों की जड़ो को खाकर नुकसान पहुंचाते हैं. इस कीट से प्रभावित पौधे आकार में कुतरे हुए दिखाई देते हैं.
प्रबंधन: इस रोग से फसल को बचाने के लिए किसानों को खेत में गोबर डाल देना है और साथ ही बची हुई फसलों के अवशेषों को भी नष्ट कर देना है. इसके बाद खेत में प्रति हेक्टेयर 10 क्विंटल नीम की खेली डालकर अच्छे से बुवाई कर देनी है. वही, अगर पहले से लगी हुई फसल में यह रोग लग जाता है, तो इसके लिए सिंचाई के दौरान क्लोरपाइरीफास 20 प्रतिशत ईसी 2.5 ली प्रति हेक्टेयर की दर से करें.
माहू
यह पंखहीन या पंखयुक्त हरे रंग के चुभाने और चूसने वाले मुखांग छोटे कीट होते हैं. जोकि पत्तियों और बालियों से रस चूसते है और मधुश्राव भी करते है जिससे काले कवक का प्रकोप होता है और फसलों को काफी नुकसान पहुंचाता है.
प्रबंधन: इन रोगों से फसलों को बचाने के लिए खेत की गहरी जुताई करवानी चाहिए. साथ ही कीटों की निगरानी के लिए में जगह-जगह गंध पास (फेरोमेन ट्रैप) प्रति एकड़ के हिसाब से लगाना चाहिए. जब कीटों की संख्या फसलों को ज्यादा प्रभावित करने लगे तब क्यूनालफास 25% ई.सी.नामक दवा की 400ml मात्रा 500-1000 लीटर पानी प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करवा दे. और साथ ही फसलों की सुरक्षा के लिए खेतों के चारो तरफ मक्का/ज्वार/बाजरा जरूर लगाएं.
लेखक: नित्या दुबे