आज़ादी के बाद भुखमरी से जूझते भारत में खाद्य उत्पादन वर्ष-1960 के 5 करोड़ टन से बढ़कर वर्ष-2020 में 30 करोड़ टन से ज्यादा हो गया. इससे भारत कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भर और प्रमुख कृषि निर्यातक देश भी बन गया. इसका श्रेय जाता हरित क्रांति की उन्नत कृषि तकनीक (बौनी/संकर अनाज की किस्में, खाद आदि),मेहनतकश किसान और दूरदर्शी कृषि सुधार को जाता है, जिससे बिजली, पानी, बीज,खाद, अनाज फसलों की लाभकारी समर्थन मूल्य पर बिक्री और विपणन, भंडारण, वितरण व्यवस्था की सुविधा किसानों और गरीबों को मिली.
इन नीतिगत और ढांचागत सुधारों से हुई कृषि प्रगति के कारण, पिछले 50 वर्षो में कई बार सूखा और दूसरी आपदा आने के बावजूद, देश में कभी अकाल की स्थिति नहीं आयी. वर्तमान कोरोना आपदा और लाकडाउन में जब देश के सभी व्यावसायिक क्षेत्र को बंद करना पड़ा, तब भी देश के भंडार अनाज से भरे हुए है और देश के किसी प्रदेश से खाद्य पदार्थो के कमी से भुखमरी के हालात नहीं बने.
वहीं पिछले 30 साल से वैश्विकरण, उदारीकरण और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के नाम पर, सरकार ने किसान से कुल लागत (सी-2 लागत) से कम पर अनाज खरीद कर किसान का खुला आर्थिक शोषण किया जो वार्षिक 3-4 लाख करोड़ रुपये यानी 8-10 हज़ार रुपये प्रति एकड़ वार्षिक बनता है. जहां सरकार ने आवश्यक खाद्य पदार्थो के दाम कम रखने का सारा बोझ किसान पर डाल दिया. वहीं दूसरी और सरकार ने समर्थन मूल्य कानून न बना कर बिचौलियों को भी किसान को लूटने की खुली छूट दी जो घोषित समर्थन मूल्य से कम पर खरीद करते है. जिसके प्रभाव से जब आज किसान को कृषि उत्पादन में कोई समस्या नहीं है लेकिन कृषि विपणन में लाभकारी मूल्य नहीं मिलने से किसान हताश है.
आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) की रिपोर्ट के अनुसार फसल बिक्री के कम मूल्य मिलने से, भारतीय किसानों को वर्ष 2000-2016 के बीच लगभग 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ. जिससे देश में समाजिक और आर्थिक असंतुलन पैदा हुआ और किसान की आर्थिक स्तिथि दूसरे व्यावसायिक वर्ग के मुकाबले दिन पर दिन गिरती चली गयी, किसान पर कर्ज बढ़ता चला गया और किसान हताशा में आत्महत्या पर मजबूर हुए.
सरकार के तमाम दावों के बावजूद कर्ज के बोझ तले दबे किसानो की आत्महत्याओं का सिलसिला आज तक रुका नहीं है. सरकार बिना नीतिगत और ढांचागत कृषि सुधार लागू किए, किसानों को खोखले नारों, कर्ज माफी, वर्ष-2022 तक किसानों की आय दुगनी करना, जीरो बजट खेती, सॉयल हेल्थ कार्ड, दूसरे राज्यों में कृषि उत्पाद की छूट,भंडारण सीमा खत्म करना आदि से लगातार बहकाती रही है .
आज देश में, कृषि विपणन किसान के लिए विकट समस्या बन गया है . किसान को कृषि उत्पादन का लाभकारी मूल्य नहीं मिल रहा है जिसका मुख्य कारण "सरकार द्वारा समर्थन मूल्य कानून नहीं बनाना" जिससे कृषि घाटे का व्यवसाय बन गया है. देश में समर्थन मूल्य सरकारी खरीद के लिए, वर्ष 1966-67 से लागू है लेकिन भ्रष्ट बिचौलियों और पूंजीपतियों के दबाव में, सरकार ने समर्थन मूल्य को कभी कानून बना कर पूरे देश पर लागू नहीं किया. आज देश में , समर्थन मूल्य केवल 6 प्रतिशत कुल कृषि उत्पाद के सरकारी खरीद पर लागू है और बाकी 94 प्रतिशत कृषि उत्पाद को बिचौलिए समर्थन मूल्य से कम पर खरीफ कर किसान का शोषण करते हैं और उस सस्ते में खरीद उच्च समर्थन मूल्य पर सरकार को बेच कर कुछ दिनों में ही मोटा मुनाफा कमाते हैं.
किसान आयोग ने अपनी रिपोर्ट-2006 में, किसानो की दुर्दशा को दूर करने के लिए कई उपाय सुझाये थे जिनमें एक मुख्य सिफारिश थी कि 'सरकार समर्थन मूल्य लागत पर 50 प्रतिशत से ज्यादा लाभ देकर घोषित करे‘ जिसे पिछले 14 वर्ष में, किसानों के लगातार आंदोलनों के बावजूद, किसी भी सरकार ने लागू नहीं किया.
इसी कड़ी में सरकार ने कोरोना आपदा के 20 लाख करोड़ रुपये पैकेज में से किसानों को कुछ भी नहीं दिया और कृषि सुधार की घोषणा को किसान हितैषी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि देश के 90 प्रतिशत किसान 2 हेक्टर से कम पर खेती करते हैं. वो इन तथाकथित खोखले कृषि सुधारों का लाभ नहीं ले पाएंगे और इनका अनुचित लाभ केवल बिचोलिये और जमाखोर पूंजीपति उठाएंगे.
कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य कानून बनने से "एक देश-एक दाम" का सिद्धांत पूरे देश में लागू होगा जिसमे घोषित समर्थन मूल्य से कम पर फसल खरीदने वालो को दण्ड का प्रावधान होगा. इससे किसान को दुगने से ज्यादा का लाभ होगा और यह फसल विविधीकरण में भी सहायक होगा.
लेखक- डॉ वीरेंद्र सिंह लाठर
पूर्व प्रधान वैज्ञानिक (आनुवंशिकी और साइटोजेनेटिक्स),
आईसीएआर-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली
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