भारत एक कृषि प्रधान देश है देश की निरन्तर बढती हुई जनसंख्या को देखते हुए खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाना अति आवश्यक है। फसलों की वृद्धि एवं उनकी उत्पादकता मुख्यतः क्षेत्र विशेष की जलवायु पर निर्भर करती है। विभिन्न फसलों की सफलता एवं उनके वृद्धि एंव विकास पर जलवायु या मौसम का विषेश प्रभाव पड़ता है। वातावरण के विभिन्न भौतिक अवयव जैसे- वर्षा, ताप, सूर्य की चमक, हवा की गति, हवा की दिशा तथा वायुदाब आदि में परिवर्तन को मौसम कहते हैं। जब यह परिवर्तन किसी क्षेत्र विशेष में लम्बी अवधि के लिए होता है तो उसे जलवायु कहते हैं। मौसम या जलवायु का कृषि से गहरा सम्बन्ध है। जलवायु का बदलता स्वरूप कृषि को पहले से भिन्न बना देता है। खेती में पहले खाद, बीज एवं पानी की मूलभूत आवश्कताएं समझी जाती थीं, लेकिन अब इनके साथ-साथ जलवायु या मौसम को ध्यान में रखते हुए खेती करने की आवश्यकता है। विश्व मौसम संगठन के अनुसार जलवायु किसी भी फसल में लगभग 50 प्रतिशत तक उपज में विभिन्नता लाती है इसलिए पौधों की वृद्धि एवं विकास हेतु मौसम या जलवायु एक महत्वपूर्ण कारक है। किसी भी फसल के उत्पादन के दावें में, जहां खाद, बीज, पानी एवं अन्य सस्य क्रियाओं का अपना महत्व है, वहीं सब सामान्य होते हुए अनुकूल मौसम का होना अति आवश्यक है।
देश-प्रदेश की जलवायु परिवर्तन तथा मौसम की अस्थिरता कृषि विभाग में आज एक बहुत बड़ी बाधा है। अतः मौसम के बदलते परिवेश में जलवायुवीय खेती अति आवश्यक हो गयी है। आज ग्लोबल वार्मिंग पूरे संसार में चिंता का विषय है तथा यातायात के साधनों की अधाधुंध बढ़ोत्तरी के कारण वातावरण में तापक्रम बढ़ने की सम्भावना प्रबल हो गयी है। परिणामस्वरूप ग्लेशियर की बर्फ के पिधलने से समुद्री जल सतह बढ़ने की भी सम्भावना है। ऐसे में नित्य मौसम के बदलने की सम्भावना बढ़ जाती है। इसलिए मौसम आधारित जलवायुवीय कृषि कार्य करना ही किसानों के लिए अत्यन्त उपयोगी एवं लाभकारी होगा। किसी भी फसल की उपज वस्तुतः फसल आने की अविध के दौरान मौसम की स्थिति पर निर्भर करती है तथा मौसम के अनुसार फसल उगाने की पद्धति में परिवर्तन करके तथा आवश्यकतानुसार सस्य क्रियाएं अपना कर अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है।
हमारे देश में मुख्यतः तीन ऋतुएं होती हैं- वर्षा, सर्दी एंव ग्रीष्म ऋतु जो कि तापमान पर आधारित हैं और उनके अनुसार ही फसलें उगायी जाती हैं किसी भी फसल के अच्छे उत्पादन के लिए उपयुक्त तापमान का होना आवश्यक है। विभिन्न फसलों की विभिन्न अवस्थाओं के लिए अलग-अलग तापमान की आवश्यकता होती है। अच्छे उत्पादन के लिए तापमान में 3 क्रान्ति बिन्दु होते हैं। अधिकतम और न्यूनतम तापमान जिसके ऊपर या नीचे फसलों की वृद्धि रुक जाती है और तीसरा वह तापमान जिस पर पौधों की वृद्धि व उत्पादन अधिकतम होता है, उसे अनुकूल तापमान कहते हैं। अनुकूलन तापमान से कम तापमान होने पर पौधों की कई क्रियाएं प्रभावित होती हैं। जिनमें मुख्यतः खराब जमाव का होना, पत्तियों में भोजन का न बचना तथा पौधों की वृद्धि रूक जाना है। इन सब का सीधा प्रभाव फसल की उपज पर पड़ता है।
किसान भाइयों इस समय गेहूं की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु है। इसकी अच्छी फसल उपज प्राप्त करने के लिए उसके वानस्पतिक वृद्धि में लम्बे समय तक ठंड एवं नम मौसम की आवश्यकता होती है। ताजमुल अवस्था तथा कल्लें निकलने के समय गर्म जलवायु फसल के लिए उपयुक्त नहीं होता तथा अधिक आर्द्रता एवं बादल होने पर रोग लगने की सम्भावना बढ़ जाती है। इन अवस्थाओं पर ताप बढ जाने से वाष्पोसर्जन प्रक्रिया द्वारा पौधों से जल का ह्रास होता है तथा उनके दाने कमजोर हो जाते हैं परिणामस्वरूप उपज घट जाती है।
किसान भाइयों देश में दाल की उत्पादकता काफी कम है। इसकी उत्पादकता बढ़ाने के लिए जलवायुवीय खेती आवश्यक है। उत्तरप्रदेश में मुख्य रूप से उगायी जाने वाली दलहनी फसलों के खराब उत्पादन का महत्वपूर्ण कारण किसानों में जलवायु के बदलते मिजाज का ज्ञान न होना है। जिससे कई बार सारी मेहनत बेकार हो जाती है। वातावरण के तापमान में वृद्धि होना, अनिश्चित वर्षा, पौधों की वृद्धि अवस्था में वातावरण के तापमान का कम या अधिक होना तथा मृदा नमी की कमी दालों के उत्पादन पर विशेष रूप से प्रभाव डालती हैं।
किसान भाइयों खण्डित वर्षा समय एवं स्थान पर विशेष रूप से बदलती रहती है। जो कि अत्यन्त सोचनीय है अतिवर्षण एवं अनावर्षण की स्थिति में कृषि कार्य प्रभावित होने से उसकी पूर्व योजना बनाना अति आवश्यक होता है। सूखे की बारम्बारता एवं बदलते तापक्रम के कारण सूखा एवं ताप अवरोधी प्रजातियों को विकसित करना अत्यन्त आवश्यक हो गया है जो कि एक चुनौती भरा कार्य है। इसके द्वारा कृषि विकास की घटती दर में कुछ आशा की किरण लायी जा सकती है।
अनुकूल बेहतर मौसम से जहां अत्यधिक उत्पादन की संभावनाएं बढ़ती हैं वहीं प्रतिकूल मौसम की जानकारी संभावित क्षति से बचने की बेहतर रणनीति का सबल आधार प्रदान करती है। हमारे देश में ओले गिरने, सूखा या बाढ़ आने एवं चक्रवात जैसी प्रतिकूल परिस्थितियों में खड़ी फसल अत्यधिक प्रभावित होती है। इसका अतिरिक्त असमयिक वर्षा, लम्बी अवधि का शुष्क काल तथा पाला आदि द्वारा फसलों की वृद्धि एंव विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः जलवायुवीय खेती की प्रासांगिकता जहां आवश्यक है वहीं मौसम आधारित बीज का चयन, बोने की तिथि, तापक्रम एवं वर्षा पूर्वानुमान आधारित कृषि कार्य, फसल रोग एवं कीट पतगों का मौसम पूर्वानुमान आधारित नियंत्रण सम्बन्धी कार्य अनिवार्य है। मौसम पूर्वानुमान द्वारा फसलों के उत्पादन एवं उत्पादकता को काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है। घाघ कवि ने तो अपने अनुभवों से छोटे-छोटे क्षेत्रों के विभिन्न पहलुओं का बारीकी से अध्ययन कर उससे मौसम पूर्वानुमान की जानकारी दी है। जिसकी सार्थकता आज भी बनी हुई है। किसानों के लिए मौसम की पूर्व जानकारी की महत्ता को कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए विशेष रूप से महसूस किया गया है।
मध्यावधि मौसम पूर्वानुमान केन्द्र जो कि 3-10 दिन का मौसम पूर्वानुमान करता है, कृषि के लिए अत्यन्त उपयोगी है। क्योंकि इससे न केवल तत्कालिक कृषि कार्य करने में सहायता मिलती है बल्कि इससे आगामी फसल कार्य योजना बनाने में भी सहायता मिलती है। कृषि जलवायु क्षेत्रों के अनुसार देश में अलग-अलग पूर्वानुमान की इकाइयों को स्थापित किया गया है। इस समय वर्षा, अधिकतम तथा न्यूनतम तापमान, हवा की गति, हवा की दिशा एवं आच्छादित बादल का पूर्वानुमान किया जाता है। मौसम या जलवायु आधारित कृषि परामर्श में मुख्य रूप से मौसम आधारित कृषि सस्य एवं बागवानी क्रियाओं तथा मौसम आधारित फसल रोग एवं कीट नियंत्रण के आर्थिक महत्व की जानकारी आवश्यक है।
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कृषि उत्पादन विशेषकर मौसम या जलवायु आधारित है अतः जलवायुवीय खेती आज के समय की नितान्त आवश्यकता है। यदि किसान भाई मौसम को ध्यान में रखकर कृषि कार्य करेंगे तो उससे कृषि उत्पादन में आशा के अनुरूप सफलता मिल सकती है।
लेखक:
1) ज्योति विश्वकर्मा (सहायक प्राध्यापक)
रैफल्स यूनिवर्सिटी, नीमराना, राजस्थान
2) विशाल यादव (शोध छात्र)
प्रसार शिक्षा, आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिकि विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या